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धन्य-चरित्र/30 कर देने पर भी लेख पढ़कर भोजन करने के लिए चला गया। इस प्रकार के व्यापारियों की गति नहीं होती। अतः जब तक यह घर से भोजन करके वापस आता है, उससे पहले ही मैं सार्थ में जाकर उस माल को आत्मसात् कर लूँ, क्योंकि लक्ष्मी का बीज उद्यम की कहा गया है।" ऐसा विचार करके वह घर पर जाकर विपुल शृंगार करके घोड़े पर आरूढ़ होकर अपने योग्य सेवकों व मित्रों के साथ सार्थ के सम्मुख गया। वह आधे प्रहर में ही बहुत सारा रास्ता पार करके मार्ग में ही सार्थ और सार्थपति से मिला।
कुशल वार्ता करके धन्य ने सार्थपति से माल का भाण्डार, उसका स्वरूप, संख्या आदि पूछी। तब उस सार्थपति ने भी यथास्थिति बताया। धन्य ने सार्थेश को माल ग्रहण करने का आशय बताया। श्रेष्ठी ने अपने हाथ की संज्ञाओं से सार्थकों व अपने मित्रों के साथ विचार करके क्रयाणक मूल्य कहा। धन्य ने भी स्वीकार कर लिया।
धन्यकुमार ने माल की भव्यता-अभव्यता के परीक्षण के लिए प्रत्येक माल को थोड़ा-थोड़ा देखकर वह सभी हस्त-ताल देकर आत्मसात् कर लिया। उसके करारनामे पर अपनी मणि-मुद्रिका देकर निश्चित हो गया।
फिर वह महा-इभ्य महेश्वर अपने घर में भोजन आदि करके गमन करने को उत्सुक हुआ। इतने दूसरे भी व्यापारी सार्थ के आगमन को जानकर जाने को इच्छुक होकर महेश्वर के साथ सार्थ के सम्मुख चले। मार्ग में जाते हुए सार्थ-युक्त सार्थपति से मिले। सार्थ-नायक को क्रयाणक ग्रहण करने का आशय दर्शाया।
तब उस सार्थ-नायक ने हँसकर महेश्वर आदि व्यापारियों को इस प्रकार कहा-"आपका कल्याण हो। पर क्या करूँ? यह क्रयाणक तो मैंने पहले ही धन्य को अर्पित कर दिया है। मैंने इसका करार भी ले लिया है। अतः किये हुए निर्णय से अन्यथा व्यवहार करता हूँ, तो मेरी अपकीर्ति होती है।"
महेश्वर के मित्र ने भी कहा-"मैंने तो पहले ही तुम्हे गोपनीय पत्र दिया था, पर तुमने प्रमादवश अवसर को नहीं जाना, तो हमारा क्या दोष? इस समय तो तुम्हे धन्य को ही मनाना चाहिए। कुछ भी उचित लाभ देकर माल ग्रहण करोगे, तो भी तुम्हारा बहुत लाभ होगा।"
यह सुनकर वह महेश्वर व्यापारी धन्य के पास गया और कहा-"हे पुण्यनिधे! आप द्वारा गृहित माल हमें अर्पित कर देखें और लाभ का लक्ष सुवर्ण ग्रहण करें, जिससे हमारा आना सफल हो जाये। आपको भी बिना प्रयास के लाख की प्राप्ति हो जायेगी। इन महा-इभ्यों का लाज की आप रक्षा करें। इस प्रकार करने पर आपको धन व यश दोनों को लाभ मिलेगा। हम भी आपका चिर