Book Title: Bharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Author(s): Siddheshwar Shastri Chitrav
Publisher: Bharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
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अचिं
प्राचीन चरित्रकोश
अर्जुन
२. कृशाश्व ऋषी की दो पत्नियों में से एक, एवं धूम- में अत्यंत निष्णात हो गया। द्रोण को भी इसके लिये • केश ऋषि की माता ( भा. ६.६.२०)।
काफी अभिमान था, अतएव अर्जुन का पराभव कोई भी ३. ब्रह्मसावर्णि मन्वन्तर के देव ।
न कर सके, इसलिये उसने कपट से अपने शिष्य अर्चिमालि-सीताशुद्धी के लिये पश्चिम की ओर | एकलव्य का अंगूठा मांग लिया । इतनी अधिक गुरुकृपा गये वानरों में से एक (वा. रा. कि. ४२)।
का स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि, 'रथी तथा महाअर्चिष्मत्-दक्षसावर्णि मनु का पुत्र ।
रथियों में अग्रेसरत्व ले कर लडनेवाला,' ऐसी इसकी अचिप्मती-बृहस्पति की कन्या। बृहस्पति की दूसरी | ख्याति हो गई। पत्नी शुभा की सप्त कन्याओं में से एक ।
__ परीक्षा-एकबार परीक्षा लेने के लिये, द्रोण ने वृक्ष अर्चिसन-अत्रिगोत्री मंत्रकार । इसे अर्धस्वन तथा पर रखे एक चिन्ह पर लक्ष्य वेध करने के इसे अर्वसन नामांतर है।
कहा, तथा सबको पूछा कि, तुम्हें क्या दिख रहा है। अर्जव-ब्रह्मांड के मतानुसार व्यास की ऋक शिष्य- केवल अर्जुन ने ही कहा कि, लक्ष्य के मस्तिष्क के परंपरा का बाष्कलि भरद्वाज का शिष्य । वायु के मता- अतिरिक्त मुझे और कुछ भी नहीं दिखता। तब से द्रोण नुसार अर्यव पाठ है ( व्यास देखिये)।
इसपर अत्यधिक प्रसन्न रहने लगा। एकबार, जब द्रोण अर्जुन--(सो. पूरु.) कुन्ती को दुर्वास द्वारा दिये गये | गंगास्नान के लिये गये थे तब मगर ने उसे पकड़ लिया। इन्द्रमंत्रप्रभाव से उत्पन्न पुत्र । यह कुन्ती का तृतीय पुत्र सभी शिष्य दिङ्मूढ हो गये परंतु अर्जुन ने पांच बाण था। इसका जन्म होते ही इसका पराक्रम कथन करने- मार कर द्रोण की मगर से रक्षा की । द्रोणाचार्यद्वारा ली वाली आकाशवाणी हुई (म. आ. ११४.२८)। यह गई शिष्यपरीक्षा में अर्जुन के प्रथम आने के उपलक्ष में, इंद्र के अध सामर्थ्य से हुआ (मार्क..५.२२)। इसके ब्रह्मशिर नामक उत्कृष्ट अस्त्र उसने इसे दिया (म. जन्म के समय, उत्तराफाल्गुनी · समवेत पूर्वाफाल्गुनी आ. १२३), तथा कहा कि, इस अस्त्र का प्रयोग मानव · नक्षत्र, फाल्गुन माह में था, अतएव इसका नाम फाल्गुन पर न करना (म. आ. १५१. १२-१३ कुं.)। एकबार
प्रचलित हुआ (म. वि. ३९.१४)। इसका जन्म द्रोण ने अपने सब शिष्यों का शस्त्रास्त्रनैपुण्य दर्शाने के : हिमालय के शतशृंग नामक भाग पर हुआ। पांडू की लिये एक बड़ा समारंभ किया। उस समय अर्जुन ने
मृत्यु के पश्चात् , इसके उपनयनादि संस्कार, वसुदेव ने लगातार पांच बाण ऐसे छोडे कि, पांचों मिल कर एक ही काश्या नामक ब्राहाण भेज कर, शतशृंग पर ही करवाए तीर नजर आवे। एक लटकते तथा हिलते सींग में इक्कीस (म. आ. ११५ परि. १.६७)।
बाण भरना इ. प्रयोग कर इसने दिखाये, तथा सबसे प्रशंसा '. विद्यार्जन--यद्यपि सब कौरव पांडवों ने शस्त्रविद्या प्राप्त की। परंतु कर्ण इसे सहन न कर सका । अर्जुन द्वारा
द्रोण से ही ग्रहण की, तथापि विशेष नैपुण्य के कारण, किये गये समस्त प्रयोग उसने कर दिखाये, तथा अर्जुन के द्रोण की इसपर विशेष प्रीति थी । इस की अध्ययन में साथ द्वंद्वयुद्ध करने की इच्छा प्रदर्शित की । तब अर्जुन ने भी प्रशंसनीय दक्षता थी। द्रोण सब शिष्यों को पानी भरने आगुंतुक कह कर उस का उपहास किया। तथापि द्रोण के लिये छोटें पात्र देता था, परंतु अपने पुत्र का समय की इच्छानुसार यह युद्ध के लिये सुसज्ज हुआ, परंतु 'तुम व्यर्थ न जावे, इसलिये अश्वत्थामा को बडा पात्र देता
कुलीन नही हो, अतएव राजपुत्र अर्जुन तुमसे युद्ध नही था। यह बात, सर्वप्रथम अर्जुन के ही ध्यान में आयी करेगा,' ऐसा कृपाचार्य ने कहा । तब दुर्योधन ने कर्ण को तथा बड़ी कुशलता से इसने अश्वत्थामा के साथ आने अभिषेक कर के, अंगदेश का राजा बनाया। युद्ध की का क्रम जारी रखा । इसीसे यह सब से आगे रहा परंतु भाषा प्रारंभ हुई, परंतु गडबडी में यह प्रसंग यहीं समाप्त अश्वत्थामा से पीछे न रहा। एकबार भोजनसमय, हवा हुआ (म. आ.१२६.१२७)।आगे चल कर, गुरुदक्षिणा के कारण बत्ती बुझ गयी परंतु अंधकार होते हुए भी के रूप में द्रुपद को जीवित पकड़ कर लाने का कार्य जब इसका भोजन ठीक तरह से पूर्ण हुआ। तब इस ने तर्क ।
द्रोण ने शिष्यों को दिया, तब केवल अर्जुन ही यह काम किया कि, अंधकार में भी गलती न करते हुए मुँह में | कर सका (म. आ. १२८)। ग्रास जाने का कारण दृढाभ्यास है। तुरंत, अंधकार में भी पराक्रम-अर्जुन ने आगे चल कर, सौवीराधिपति लक्ष्यवेध करने का इसने प्रारंभ किया, तथा यह धनुर्विद्या दत्तामित्र नाम से प्रसिद्ध सुमित्र को जीता । उसी प्रकार,
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