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अनेकान्त 64/1, जनवरी-मार्च 2011
पर लाना सभ्यों का परमदायित्व था। धर्मशास्त्रों में मुख्य न्यायाधीश तथा सभ्यों के विषय में कहा गया है कि सभ्य यथासंभव ब्राह्मण, धार्मिक, नि:स्वार्थी तथा चरित्रवान् होने चाहिए। पुरोहित
न्यायिक प्रक्रिया के दौरान राजा के साथ पुरोहित का होना सदैव अनिवार्य था। राजा सभ्यों के साथ परामर्श करने के उपरांत अन्त में पुरोहित से ही निर्णय की घोषणा करता था। न्यायिक प्रशासन में पुरोहित राजा के कार्यों, व्यवहार एवं निर्णय के निरीक्षणकर्ता के रूप में कार्य करता था। न्यायिक प्रक्रिया के समय यदि राजा उपस्थित होता था, तो उस समय पुरोहित का स्थान प्राड्विवाक से भी महत्त्वपूर्ण हो जाता था लेकिन दोनों पद अलग-अलग थे। कौटिल्य ने माना है कि न्यायाधीश एवं अन्य कर्मचारियों के न्याय संबन्धी कार्यों के निरीक्षण का अधिकार पुरोहित को होना चाहिये, यद्यपि पुरोहित का न्यायिक प्रशासन में हस्तक्षेप अधिक नहीं था। रामायण में भी यह कार्य हेय दृष्टि से देखा गया है क्योंकि उस समय उसका विशेष संबंध 'प्रायश्चित्त' से ही रह गया था। ग्रामणी
न्यायिक प्रशासन में ग्रामणी का महत्त्वपूर्ण स्थान था। ग्रामणी की नियुक्ति सीधे राजा द्वारा की जाती थी। प्राचीन भारतीय साहित्य में राजकर्मचारी के रूप में ग्रामणी को अनेक न्यायिक एवं प्रशासकीय अधिकारों से युक्त माना गया है। व्यवहार-विधि में विवाद के निर्णय में उसे महत्त्वपूर्ण अधिकार प्राप्त थे। ग्रामणी का ब्राह्मण होना आवश्यक नहीं था। कायस्थ एवं पुस्तपाल
न्यायिक प्रक्रिया में कायस्थ नामक कर्मचारी का उल्लेख भी प्राचीन साहित्य में मिलता है। कायस्थ शब्द का अर्थ है- काये न्यायालये तिष्ठति इति कायस्थः अर्थात् जो 'काय' अर्थात् न्यायालय में बना रहता है। कायस्थ का प्रमुख कार्य अभ्यर्थी अथवा याची की याचिकाओं को लेकर, न्यायाधीश के समक्ष प्रस्तुत करना होता था, साथ ही वह व्यवहार मुकदमों के सभी तथ्यों को लेखबद्ध कर उनका रिकार्ड रखता था। कायस्थ की नियुक्ति न्यायालयों के अतिरिक्त अन्य विभागों में भी होती थी। कायस्थ मुख्यतः लेखन-कार्य से संबंधित कर्मचारी था, जो सभी विभागों की कार्यवाही को क्रमबद्ध एवं लिपिबद्ध करता था।
कायस्थ के अतिरिक्त न्यायालय प्रक्रिया में पत्रजात, फाइल और अन्य अभिलेखों को सुरक्षित रखने का कार्य, पुस्तकाल नामक कर्मचारी द्वारा किये जाने का उल्लेख मिलता
अन्य न्यायिक कर्मचारी
न्यायालय में एक अन्य महत्त्वपूर्ण कर्मचारी 'काष्ठक-महत्तर' होता था। जिसके हाथ में एक दण्ड रहता था। यह राजदण्ड के प्रतीक के रूप में न्यायाधीश के साथ उपस्थित