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अनेकान्त 64/1, जनवरी-मार्च 2011 है। सत् का स्वरूप वर्णित करते हुए आचार्य लिखते हैं कि- उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत्। अर्थात् जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त होता है वह द्रव्य कहलाता है। यहां आचार्य का आशय यह है कि जो भी द्रव्य की संज्ञा को प्राप्त है वह इन तीनों से युक्त अवश्य ही होता है। ये तीनों एक-दूसरे के अविनाभावी हैं। इन तीनों अवस्थाओं का स्वरूप इस प्रकार है
उत्पाद- द्रव्य की नवीन पर्याय का उत्पन्न होना उत्पाद कहलाता है। जैसे- नरक से मनुष्य पर्याय में उत्पन्न होना, मनुष्य पर्याय का उत्पाद है।
व्यय- द्रव्य की पूर्व पर्याय का विनाश हो जाना व्यय कहलाता है। जैसे- नरक से मनुष्य पर्याय में उत्पन्न होना, नरक पर्याय का व्यय है। - ध्रौव्य- जो द्रव्य की दोनों पर्यायों में सर्वदा रहता है वह ध्रौव्य है। जैसे- नरक से मनुष्य पर्याय में उत्पन्न हो, इन दोनों अवस्थाओं में जीव नित्य विद्यमान रहता है यह ध्रौव्य है। यहां नरक पर्याय का व्यय हो रहा है, मनुष्य पर्याय का उत्पाद हो रहा है फिर भी दोनों अवस्थाओं में वही जीव विद्यमान रहता है। जो-जो भी द्रव्य हैं वे इन तीन गुणों सहित अवश्य ही होंगे। आचार्य समन्तभद्र स्वामी लिखते हैं कि- घट, मौलि और सुवर्ण को चाहने वालों को इन तीनों नाश, उत्पाद और स्थिति में शोक, प्रमोद और माध्यस्थ भाव को लोग निमित्त सहित प्राप्त करते हैं। जिसके दुग्ध लेने का व्रत है वह दही नहीं लेता, जिसके दही लेने का व्रत होता है वह दुग्ध नहीं लेता। जिसका गोरस न लेने का व्रत है वह दोनों नहीं लेता। इससे मालूम होता है कि वस्तुतत्त्व त्रयात्मक है। द्वितीय लक्षण को लक्षित करते हुए आचार्य लिखते हैं कि- "गुणपर्ययवद् द्रव्यम्' अर्थात् गुण और पर्याय वाला जो है वह द्रव्य है। यहां आचार्य उमास्वामी महाराज का आशय यह है कि जो गुण
और पर्याय से सहित होता है वह द्रव्य कहलाता है। प्रत्येक द्रव्य गुण और पर्यायों का समूह है। जैसे- जीव में ज्ञान और दर्शन गुण हैं और मतिज्ञानादि एवं चक्षुदर्शनादि पर्यायें होती हैं। यह द्रव्य का लक्षण पूर्व लक्षण से भिन्न नहीं है। सिर्फ शब्द भेद है, अर्थभेद नहीं है क्योंकि पर्याय से उत्पाद और व्यय की तथा गुण से ध्रौव्य अर्थ की प्रतीति हो जाती है। इसी प्रसंग में आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी लिखते हैं कि
दव्वं सल्लक्खणियं उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं।
गुण पज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्हू॥ अर्थात् जो सत्ता है लक्षण जिसका ऐसा है, उस वस्तु को सर्वज्ञ वीतराग देव द्रव्य कहते हैं। अथवा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यसंयुक्त द्रव्य का लक्षण कहते हैं। अथवा गुण पर्याय का जो आधार है उसको द्रव्य का लक्षण कहते हैं।
यहां गुण का स्वरूप स्पष्ट करते हुए आचार्य लिखते हैं कि- "द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः।" अर्थात् जो द्रव्य के आश्रय से रहते हैं और जो अन्य गुणों में नहीं पाये जाते हैं वे गुण कहलाते हैं। जैसे- जीव के ज्ञानादि गुण, पुद्गल के स्पर्शादि गुण। ये स्पर्शादि गुण सिर्फ पुद्गल द्रव्य के आश्रय से ही रहते हैं इनमें ज्ञानादि गुण नहीं पाये जा सकते । इसमें यह विशेषता है कि द्रव्य की अनेक पर्याय पलटते रहने पर भी जो द्रव्य से कभी पृथक्