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अनेकान्त 64/3, जुलाई-सितम्बर 2011
2. त्रिगुणादि विपर्ययाद् अर्थात् तीनों गुणों से भिन्न होने से पुरुष की सत्ता का अनुमान होता है। संसार के सभी पदार्थ सत्त्व, रज और तम रूप हैं। अत: इन गुणों से भिन्न जिसकी सत्ता है, वही पुरुष-आत्मा है।
3. संसार के समस्त पदार्थों का कोई न कोई अधिष्ठाता होता है। अतः बुद्धि अहंकारादि का जो अधिष्ठाता है, वही पुरुष है। __4. सुख-दुःख का जो भोक्ता है वही पुरुष है। यहाँ भोक्ता का अर्थ द्रष्टा किया गया है। बुद्धि आदि पदार्थ दृश्य हैं। अत: इनका द्रष्टा होना अनिवार्य है। इस अनुमान से सिद्ध है कि दृश्य पदार्थों का जो द्रष्टा है, वही पुरुष है।
5. जीवन का अंतिम एवं परम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति के लिए मनुष्य प्रयत्न करता है, यह उसकी प्रवृत्ति होती है। इस प्रकार की प्रवृत्ति से सिद्ध होता है कि प्रकृति आदि से भिन्न पुरुष का अस्तित्व है। (ग) मीमांसादर्शन में आत्मसिद्धि___मीमांसा सूत्र में आत्मसिद्धि के प्रमाण प्राप्त नहीं होते हैं लेकिन जैमिनी के बाद प्रभाकर और कुमारिल भट्ट आदि दार्शनिकों ने न्याय-वैशेषिक और सांख्यों की तरह ही युक्तियां दी हैं। शबर स्वामी ने मानस प्रत्यक्ष के द्वारा आत्मा की सत्ता सिद्ध की है।'
यज्ञ विहित फल के भोक्ता के रूप में आत्मास्तित्व सिद्ध किया है क्योंकि कर्मों का फल अवश्य मिलता है। अतः कर्म करने वाला और भोगने वाला शरीरादि से भिन्न आत्मा नामक तत्त्व अवश्य है। (घ) अद्वैत वेदान्तदर्शन में आत्मसिद्धि
अद्वैत वेदान्तदर्शन के अनुसार आत्मा की सत्ता स्वयंसिद्ध है। अनुभव करने वाले के रूप में आत्मा की सत्ता स्वयंसिद्ध है। यदि ज्ञाता के रूप में आत्मा की सत्ता न मानी जाय तो किसी भी ज्ञेय विषय का ज्ञान न हो सकेगा। अत: अनुभवकर्ता के रूप में आत्मा की सत्ता सिद्ध होती है।' (ङ) जैनदर्शन में आत्मास्तित्व की सिद्धि
जैन दर्शन के प्रमुख आचार्य स्वामी समन्तभद्र, सिद्धसेन, पूज्यपाद, भट्ट अकलंकदेव, विद्यानन्द, हरिभद्र, जिनभद्रगणि, प्रभाचंद, मल्लिषेण और गुणरत्न आदि ने आत्मा की सत्ता को प्रत्यक्ष और अनुमानादि सबल, अकाट्य प्रमाणों द्वारा सिद्ध किया है।
१. आचार्य पूज्यपादस्वामी- जैन आचार्य पूज्यपादस्वामी ने सर्वार्थसिद्धि में लिखा है कि- श्वासोच्छ्वास रूप कार्य से क्रियावान् आत्मा का अस्तित्व उसी प्रकार सिद्ध है जिस प्रकार यन्त्रमूर्ति की चेष्टाओं से उसके प्रयोक्ता का अस्तित्व सिद्ध होता है।"
२. आचार्य भट्ट अकलंकदेव - आचार्य भट्ट अकलंकदेव के अनुसार श्वासोच्छ्वास रूपी क्रियाएं बिना कारण के नहीं होती हैं क्योंकि ये क्रियाएं नियमपूर्वक होती हैं। विज्ञानादि अमूर्त हैं इसलिए उनमें प्रेरणा शक्ति का अभाव होता है। अतः वे इन क्रियाओं के कारण नहीं हो सकते हैं। रूप स्कन्ध के द्वारा भी क्रियाएं नहीं हो सकती हैं क्योंकि