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अनेकान्त 64/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2011
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आप्तपरीक्षा में भी कहा है कि "कर्मो के द्वारा संसारी जीव परतंत्र होता है। सभी संसारी जीव अपने-अपने कर्मो से बंधे होते हैं। अतः कर्मों के अनुसार ही उनकी बुद्धि और प्रवृत्ति होती है। "बुद्धि कर्मानुसारिणी" अच्छे कर्मों के अनुसार उत्पन्न हुई बुद्धि मनुष्य को सन्मार्ग की ओर ले जाती है तथा बुरे कर्मों के अनुसार उत्पन्न बुद्धि कुमार्ग की ओर ले जाती है। सन्मार्ग पर चलने से मुक्तिलाभ होता है और कुमार्ग पर चलने से संसार में भटकना होता है। अतः बुद्धि के कर्मानुसार होने से मुक्ति की प्राप्ति में कोई बाधा नहीं आती। जयधवला भाग-१६ पृष्ठ १८७ में भी कहा है कि संसारी जीव अनादिकालीन कर्म के संबन्ध में पराधीन है।
दोनों की स्वतन्त्र सत्ता- आत्मा के साथ कर्मों का एकक्षेत्रावगाही संश्लेष संबन्ध होने पर भी इन दोनों की सत्ता स्वतंत्र बनी रहती है। वह सत्ता अव्यक्त या तिरोभूत अवश्य हो जाती है, पर समाप्त नहीं होती। बंध दशा में दोनों की वैभाविक परिणति रहने से वे अपने-अपने स्वभाव से च्युत रहते हैं। कर्म-नोकर्म से बँधकर जीव विजातीय बने रहते हैं; परन्तु सत्पुरुषार्थ से जीव जब कर्मों से मुक्त हो जाता है तो वह पूर्ण शुद्ध होकर अपने स्वभाव में आ जाता है और जड़कर्म भी बंधनमुक्त होकर अपने शुद्धस्वभाव को पा लेता है। जैसे- जल रासायनिक प्रयोग से ऑक्सीजन और हाईड्रोजन रूप मूलस्वभाव में आ जाते हैं। यह अवश्य है कि पूर्ण कर्ममुक्त हुआ जीव फिर कर्मों से नहीं बंधता। जैसे- घी फिर दूध नहीं बनता।
एकक्षेत्रावगाही संबन्ध में रहते हुए भी जीव जीव ही रहता है और पुद्गल पुद्गल ही रहता है। दोनों अपने मौलिक गुणों को एक समय के लिए भी नहीं छोड़ते। जीव की प्रक्रिया जीव में और पुद्गल की प्रक्रिया पुद्गल में ही होती है। जीव की जीव के द्वारा
और पुद्गल की पुद्गल के द्वारा प्रक्रिया संपन्न होती रहती है; परन्तु इन दोनों की प्रक्रियाओं में ऐसी समता/ एकरूपता रहती है कि जीवद्रव्य कभी पुद्गल की प्रक्रिया को अपनी और अपनी प्रक्रिया को पुद्गल की मान बैठता है। जीव की यही भ्रान्त मान्यता मिथ्यात्व, मोह या अज्ञान कहलाती है और यही संसार की बीज है।।2।।
प्रत्येक जीव अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार अलग-अलग कर्म करता है। वह कर्म प्रत्येक जीव में भिन्न-भिन्न ढंग से स्वतंत्ररूप से व्क्त होता है। यही कारण है कि मानव की बाह्य रचना बनावट एक जैसी होने पर भी उनके आकार-प्रकार, बुद्धि, वैभव, स्वास्थ्य, हावभाव तथा व्यक्तित्व आदि पृथक्-पृथक् होते हैं। एक ही माता की संतानों में भी व्यवहार, बुद्धि, आचार-विचार आदि अलग-अलग पाये जाते हैं। इससे भी कर्मों की स्वतंत्रता सिद्ध होती है।
बँध दशा में जीव के स्वाभाविक गुण कर्मों से आवृत्त होने के कारण उसकी दृष्टि विकारयुक्त रहती है। अतः प्रत्येक पदार्थ को विपरीत देखता-जानता है और तदनुसार क्रियाएँ/ चेष्टाएँ करता है, परन्तु बंध दशा में भी जीव और कर्मरूप पुद्गल अपने-अपने स्वाभाविक गुणों को छोड़कर अन्यरूप नहीं होते। जीव कर्म नहीं बन जाता और कर्म जीवरूप परिणत नहीं होते। अपने-अपने स्वाभाविक गुणों के साथ दोनों की सत्ता स्वतंत्र बनी रहती है।