Book Title: Anekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 336
________________ 48 मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त आकाशवाणी सुनकर उन्होंने अपने आपको अल्पायुस्क जान लिया। उन्होंने दशपूर्वधारी विशाखाचार्य को पट्ट पर नियोजित कर साधुओं को दक्षिण की ओर भेजा। स्वयं कन्दरा में रहने का निश्चय किया। साधुजनों ने कहा कि आपको हम अकेला कैसे छोड़ सकते हैं, तब नवदीक्षित मुनि चन्द्रगुप्त ने कहा कि आप चिंता न करें मैं बारह वर्ष पर्यन्त स्वामी के चरणों की सभक्ति परिचर्या करता रहूँगा। चन्द्रगुप्त मुनि आचार्य भद्रबाहु की परिचर्या में रहे। विशाखाचार्य अन्य साधुओं को ज्ञान दान देते हुए चोलदेश में आए। योगिराज भद्रबाहु मुनि ने सल्लेखनापूर्वक शरीर छोड़ा। चन्द्रगुप्त मुनि के पुण्य से देवों ने समीप में नगर रचना कर दी। मुनिराज वहीं आहार करते रहे। बाद में यथार्थता को जानकारी होने पर उन्होंने देवोपनीत आहार का त्यागकर प्रायश्चित किया। इस प्रकार इस कथा में विशाखाचार्य और चन्द्रगुप्त को पृथक् पृथक् साधु निरूपित किया है। शक् सं. 1602 के मुनिवंशाभ्युदय काव्य में कहा है कि श्रुतकेवली भद्रबाहु बेल्गोल आए और चिकबेट्ट (चन्द्रगिरि) पर ठहरे। चन्द्रगुप्त यहां तीर्थयात्रा को आए और दक्षिणाचार्य के बनवाए मंदिर तथा भद्रबाहु के चरणों की पूजा करते हुए वहाँ रहे। कुछ कालोपरान्त दक्षिणाचार्य ने अपना पद चन्द्रगुप्त को दे दिया। देवचन्द्र कृत राजबली कथे (शक सं. 1761) के अनुसार चन्द्रगुप्त ने अपने पुत्र सिंहसेन को राज्य दे भद्रबाहु से जिनदीक्षा ग्रहण की। वे दुर्भिक्ष के कारण भद्रबाहु आदि 1200 मुनियों के साथ दक्षिण को आए। भद्रबाहु ने अपनी आयु कम जानकर विशाखाचार्य को संघनायक बना चौल और पाण्ड्यदेश को भेज दिया। केवल चन्द्रगुप्त को उन्होंने अपने साथ रहने की अनुमति दी। गुरू की समाधि के पश्चात् चन्द्रगुप्त उनके चरणचिह्न पूजते रहे। यहाँ पर सिंहसेन नरेश के पुत्र भास्कर वहाँ आए, उन्होंने उस स्थान पर जिनमंदिरों का निर्माण कराया और चन्द्रगिरि के समीप बेल्गोल नामक नगर बसा था। चन्द्रगुप्त ने इसी गिरि पर समाधिमरण किया। यहाँ चन्द्रगुप्त को पाटलिपुत्र का राजा बनाकर उनके सोलह स्वप्न निरूपित हैं। इससे ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त की राजधानी उज्जयिनी के समान पाटलिपुत्र भी थी। श्रवणवेलगोला के चन्द्रगिरि पर पार्श्वनाथ वसदि के पास एक शिलालेख है। यह शिलालेख श्रवणबेलगोल के समस्त लेखों में प्राचीनतम (शक सं.922) है। इस लेख में कथन है कि "महावीर स्वामी के पश्चात गौतम, लोहार्य, जम्बू, विष्णुदेव, अपराति, गोवर्द्धन, भद्रबाहु, विशाख, प्रोष्ठिल, कृतिकार्य, जय, सिद्धार्थ, धुतिश्रेण बुद्धिलादि गुरुपरम्परा में होने वाले भद्रबाहु स्वामी के त्रैकाल्यदर्शी निमित्तज्ञान द्वारा यह कथन किए जाने पर कि वहाँ द्वादश वर्ष का वैषम्य (दुर्भिक्ष) पड़ने वाला है, सारे संघ ने उत्तरापथ से दक्षिणापथ को प्रस्थान किया और क्रम से वह एक बहुत समृद्धियुक्त जनपद में पहुंचा। यहाँ आचार्य प्रभाचन्द्र ने व्याघ्रादि व दरीगुफादि संकुल सुन्दर कटवप्र नामक शिखर पर अपनी आयु अल्प ही शेष जानकर समाधितप करने की आज्ञा लेकर समस्त संघ को आगे भेजकर व केवल एक शिष्य साथ रखकर देह की समाधि-आराधना की। लेख में प्रभाचन्द्रानामानितल में में प्रभाचन्द्रेण पाठ स्वीकार करने पर यह अर्थ निकलता है कि

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