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अनेकान्त 64/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2011 नहीं करते हैं और न ही उनका उपासना ही करते हैं, सूर्य के उदय होने पर भी उनके हृदय में अज्ञानरूप अन्धकार बना ही रहता है। ३. स्वाध्याय :
'स्वाध्यायः परमं तपः' - कहकर आचार्यों ने स्वाध्याय को तप के भेदों में गिना है। यद्यपि 'तप' भी षडावश्यकों में है। तथापि स्वाध्याय का महत्त्व इतना अधिक है तो उसे पृथक् स्थान देकर उसकी अनिवार्यता मानी है। स्वाध्याय स्व-पर का भेद ज्ञान करवाने में सबसे बड़ा निमित्त है। शेष आवश्यकों को सच्ची रीतिपूर्वक करने के लिये भी स्वाध्याय बहुत आवश्यक है। धर्मसंग्रह श्रावकाचार के अनुसार अपने लिये अध्ययन करने को स्वाध्याय कहते हैं और यही स्वाध्याय अज्ञान का नाश करने वाला है
स्वाध्यायायोऽध्ययनं स्वस्मै जैनसूत्रस्य युक्तितः।
अज्ञानप्रतिकूलत्वात्तपः स्वेष परं तपः॥२७ आचार्य स्वाध्याय को मोक्ष का कारण बताते हुए कहते हैं कि स्वाध्याय के करने से ज्ञान की वृद्धि होती है, ज्ञान की वृद्धि होने से चित्त उत्कट वैराग्यवान होता है, वैराग्य के होने से और परिग्रह का त्याग होने से ध्यान होता है, ध्यान के होने आत्मा की उपलब्धि होती है, आत्मा की उपलब्धि होने से ज्ञानावरणादि आठ कर्मों का नाश होता है और कर्मो का नाश ही मोक्ष कहा जाता है। अतः यह स्वाध्याय परम्परा से मोक्ष कहा जाता है। अतः यह स्वाध्याय परम्परा से मोक्ष का कारण है। इसलिए भव्य पुरुषों को शक्त्यनुसार स्वाध्याय अवश्य करना चाहिये। पूर्वकाल में जितने सिद्ध हुए हैं, आगामी होंगे तथा वर्तमान में होने योग्य हैं, वे सब नियम से इस स्वाध्याय से ही हुए हैं तथा होने वाले हैं। इसलिए संसार का नाश करने वाला यही स्वाध्याय मोक्ष का कारण है। अतः भव्य गृहस्थों को स्वाध्याय परम्परा मोक्ष का कारण जानकर, एकान्त स्थान में बैठकर, मन, वचन, काय की शुद्धिपूर्वक नित्य तथा नैमित्तिक स्वाध्याय करना चाहिये। ४. संयम
संयम एक ऐसा आवश्यक है जिसमें सम्पूर्ण श्रावकाचार गर्भित हो जाता है। सभी व्रतों को अपने में संजोने वाले संयम को श्रावक का आवश्यक कर्त्तव्य माना गया है। असंयमी का धर्म के क्षेत्र में कोई मूल्य नहीं है। आचार्यों ने संयम की परिभाषा तथा व्याख्या विस्तार से की है। चारित्रसार में पञ्चाणुव्रत का पालन करना ही संयम कहा है- 'संयमः पञ्चाणुव्रतवर्त्तनम्'। उमास्वामीश्रावकाचार में संयम के दो भेदों का उल्लेख करते हुए कहा है कि संयम दो प्रकार का जानना चाहिये- 1. इन्द्रिय संयम, 2. प्राणी संयम। पांचों इन्द्रियों के विषयों के विषयों की निवृत्ति करना इन्द्रिय संयम है और छ: काय के जीवों की रक्षा करना प्राणी संयम है।
संयमो द्विविधो ज्ञेय आधश्चेन्द्रिसंयमः।
इन्द्रियार्थनिवृत्त्युत्थो द्वितीयः प्राणिसंयमः॥२९ अर्थात् संस्कृत-भावसंग्रह में गृहस्थों के एक देश संयम का लक्षण किया है