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अनेकान्त 64/4 अक्टूबर-दिसम्बर 2011
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है उसे दान देते समय सदा ही पात्र, कुपात्र और अपात्र को जानकर ही दान देना चाहिए। उत्तम, मध्यम और जघन्य के भेद से पात्र तीन प्रकार के होते हैं। 'पात्रकृपात्रापात्राण्यवबुध्य फलार्थिना सदा देयम्।"
'पात्रं तत्त्वपटिष्ठैरुत्तममध्यमजघन्यभेदेन ।
उनमें तपस्वी साधु उत्तमपात्र है विरताविरत श्रावक मध्यम पात्र है और सम्यग्दर्शन
सेभूषित व्रत रहित जघन्य पात्र है। 2 चारों प्रकार के दान के अलावा पं. आशाधर जी ने कन्यादान को भी महत्त्वपूर्ण माना है और कहा है कि गृहस्थ के द्वारा गर्भाधान आदिक क्रियाओं की तथा अनेक मंत्रों को व्रतनियमादिकों की रक्षा की आकांक्षा से सहधर्मियों के लिये यथायोग्य कन्यादिक को दिया जाना चाहिए। दाता का लक्षण बताते हुए कहते 崇
भक्ति श्रद्धासत्त्व तुष्टि ज्ञानालौल्य क्षमा गुणाः । नवकोटिविशुद्धस्य दाता दानस्य यः पतिः ॥"
अर्थात् नवकोटि विशुद्ध दान को जो पति है वह दाता है। भक्ति, श्रद्धा, सत्त्व, तुष्टि, ज्ञान, अलौल्य और क्षमा ये सात दाता के गुण है। धर्मसंग्रह श्रावकाचार में भी सागार धर्मामृत के समान कन्यादान को महत्त्वपूर्ण माना है और कहा गया है जिस दाता ने अपनी कुलवती कन्या का दान दिया है तो समझना चाहिये कि उसने कन्यादान लेने वाले को
धर्म, अर्थ, काम के साथ-साथ गृहस्थाश्रम ही दिया है, क्योंकि गृहिणी (पत्नी) को ही तो घर कहते हैं।" श्रावकाचारसारोद्धार में दान देने वाले दाता के उत्तम, मध्यम और जघन्य ये तीन भेद बताते हुए कहा है कि जो गृहस्थ अपनी आय के चार भाग करके दो भाग तो कुटुम्ब के भरण-पोषण में तीसरा भाग भविष्य के लिये संचय तथा चौथा भाग धर्म के लिये त्यागता है, वह उत्तम (श्रेष्ठ) दाता है। अपनी आय छः भाग करके दो भाग कुटुम्ब के लिये, तीन भाग कोश के लिये, छठा भाग दान देता है वह मध्यम दाता है। जो अपनी आय के दस भाग करके छः भाग परिवार में, तीन भाग संचय में, दशवाँ भाग कर्म कार्य में लगाता है, वह जघन्य दाता है। 45
संदर्भ सूची :
1. अभिधान राजेन्द्र कोश, सप्तम भाग, सावय शब्द, पृ. 779
वही,
2.
3. आदिपुराण, 5/21-23
4.
द्रष्टव्य, चारित्रपाहुड गाथा, पृ. 20-25
5. मूलाचार गाथा, 515
6.
पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, 200
7.
यशस्तिलकचम्पू उपासकाध्ययन, 879
8.
महापुराण, अष्टत्रिंशत्पर्व श्लोक, 24
9. देवपूजा गुरुपास्तिः स्वाध्याय: संयमस्तपः ।
दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने । पद्मनन्दिपंचविंशतिका, 7