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अनेकान्त 64/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2011
प्रायश्चित-पाठ
मुझसे जो भी पाप हुए हों, उनका प्रायश्चित करता हूँ। भूल गया था तुमको प्रभुवर! सदा हृदय अब धरता हूँ।। शत आठ विध भावों से जो, पाप हुआ करता प्रतिफल, अनन्तानन्त कर्मों का आस्रव बन्ध हुआ करता हर पल। सपाक निर्जरा से कर्मों का, क्षय नहीं होता, हुआ कभी, नाश कर सकूँ कर्मों को सब, ऐसा तप धारा न कभी। भूल सदा पहिले भी की है, और अभी भी करता हूँ।।
भूल गया था....।।1।। उद्योगी आरम्भी विरोधी, हिंसा का नहीं त्याग किया, संकल्पी हिंसा का मैंने, भाव-पाप है सदा किया। त्याग नहीं जिस हिंसा का था, पापासव नित हुआ मुझे, षट्काय के जीवों की प्रभु, रक्षा तो हम कर न सके। मन-वच-काय त्रियोग सहित मैं नित आलोचना करता हूँ.।।
भूल गया था......।।2।। आत्मप्रशंसा परनिन्दा में, मेरा समय व्यतीत हुआ, काम भोग विषयक गाथा में, सारा काल अतीत हुआ। कुगुरू कुदेव कुधर्म के सेवन, में सदा तत्पर रहता, दुर्जन क्रूर कुमार्गरतों के, साथ साथ मस्ती करता। अनन्त पाप किये हैं मैंने, कैसे मैं कह सकता हूँ.।।
भूल गया था......।।3।। कभी न ऐसा भाव बने कि पाप कार्य में लीन रहूं, देवशास्त्र गुरू की भक्ति में, नित ही मैं तल्लीन रहूं। नहीं घूमना है इस जग में पंचमगति का लक्ष्य बना, भारतीय भव-बन्धन तोड़ो ऐसा दृढ़ सम्बन्ध बना। चरण शरण न छुटे अब तो, यही भावना करता हूं
भूल गया था......||4||
-डॉ. सुपार्श्व कुमार जैन