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आचार्य ज्ञानसागर जी और स्याद्वाद जैसे यव (जौ) अपने यव रूप स्वभाव से 'है', उस प्रकार गेहूँ आदि के स्वभाव से 'नहीं' है। इस प्रकार यव में अस्तित्व और नास्तित्व ये दो धर्म सिद्ध होते हैं। यदि इन दोनों ही धर्मों को एक साथ कहने की विवक्षा की जाये तो उनका कहना सम्भव नहीं, अत: उस यव में अव्यक्त रूप तीसरा धर्म भी मानना पड़ता है। इस प्रकार वस्तु में अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य ये तीन धर्म सिद्ध हो जाते हैं, ज्ञानी जन इन्हें ही सप्त भंग नाम से कहते हैं। जैसे हरड़, बहेड़ा और आंवला इन तीनों का अलग-अलग स्वाद है द्विसंयोगी करने पर हरड़ और आंवले का मिला हुआ एक स्वाद होगा, हरड़ और बहेड़े का मिला हुआ दूसरा स्वाद होगा और बहेड़े और आंवले का मिला हुआ तीसरा स्वाद होगा। तीनों का एक साथ मिलाकर खाने से चौथी ही जाति का स्वाद होगा। इस प्रकार मूलरूप हरड़, बहेड़ा और आंवला के एक संयोगी तीन भंग, द्विसंयोगी तीन भंग और त्रिसंयोगी एक भंग, ये सब मिलकर सातभंग जैसे हो जाते हैं, उसी प्रकार अस्ति, नास्ति, अवक्तव्य के भी द्विसंयोगी तीन भंग और त्रिसंयोगी एक भंग ये सब मिलाकर सात भंग हो जाते हैं। ये भंग न इससे कम होते हैं तथा न इससे अधिक अर्थात् कहने का तात्पर्य है कि अस्ति, नास्ति, अस्ति-नास्ति, अवक्तव्य, अस्ति-अवक्तव्य, नास्ति-अवक्तव्य और अस्ति-नास्ति-अवक्तव्य ये सात भंग प्रत्येक वस्तु के यथार्थ स्वरूप का निरूपण करते हैं। अतः उस अपेक्षा को प्रकट करने के लिए प्रत्येक भंग के पूर्व 'स्यात्' पद का प्रयोग किया जाता है। इसे ही स्याद्वाद रूप सप्तभंगी कहते हैं। इस स्याद्वाद रूप सप्तभंग वाणी के द्वारा ही वस्तु के यथार्थ का कथन सम्भव है अन्यथा नहीं। वस्तुतः देखा जाये तो स्याद्वाद सिद्धान्त जैनदर्शन का प्राण है। संदर्भ सूची
1. जैनधर्म और दर्शन, पृष्ठ 313-314 2. जैनधर्म और दर्शन, पृष्ठभूमि, पृष्ठ 21 3. वीरोदय, 19/8 4. वीरोदय, 19/10-11 5. जयोदय, 26/75 6. जयोदय, 3/43 7. वीरोदय, 19/12 8. वीरोदय, 19/15 9. वही, 19/5 10. वही, 19/6-7
- जवाहरलाल नेहरू स्मृति इण्टर कालेज
रवापुरी सठेडी खतौली (उ.प्र.)