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आचार्य ज्ञानसागर जी और स्याद्वाद
-डॉ. चन्द्रमोहन शर्मा
अनेकान्तात्मक वस्तु स्वरूप को प्रतिपादन करने वाली निर्दोष पद्धति का नाम स्याद्वाद है। स्याद्वाद पद 'स्यात्' और 'वाद' इन दो शब्दों के योग से बना है। प्राकृत में स्यात् शब्द अव्यय निपात है, क्रिया या प्रश्नादि रूप नहीं, इसका अर्थ है कथञ्चित किसी अपेक्षा से, किसी दृष्टि विशेष से। वाद शब्द का अर्थ है मान्यता, कथन, वचन अथवा प्रतिपादन। जो स्यात् का कथन अथवा प्रतिपादन करने वाला है, वह स्याद्वाद है। इस प्रकार स्याद्वाद का अर्थ हुआ- विभिन्न दृष्टि बिन्दुओं से अनेकान्तात्मक वस्तु का परस्पर सापेक्ष कथन करने की पद्धति। इसे कथञ्चित्वाद, अपेक्षावाद और सापेक्षवाद भी कहा जाता है। जैसे कोई व्यक्ति किसी का पिता है तो वह सिर्फ पिता ही नहीं है अन्य सन्दर्भो में पुत्र, पौत्र, चाचा, भतीजा, मामा, भांजा, भाई आदि अनेक रिश्ते उसके साथ सम्भव है। इससे सिद्ध हुआ कि हमें जो कुछ कहना है सापेक्ष ही कहना है। ऐसा कहकर ही हम वस्तुस्थिति का सही कथन कर सकते हैं। पुत्र की अपेक्षा से ही उसे पिता कहा जा सकता है। आचार्य ज्ञानसागर जी ने अपने महाकाव्यों में इस सिद्धान्त का विस्तार से वर्णन किया है। स्याद्वाद की परिभाषा देते हुए आचार्य ज्ञानसागर जी ने कहा है
अनेकशक्यात्मकवस्तु तत्त्वं तदेकया संवदतोऽन्यसत्त्वम्।
समर्थयत्स्यात्पदमत्र भाति स्याद्वादनामैवमिहोक्तिजातिः॥ अर्थात् वस्तुतत्त्व अनेक शक्यात्मक है अर्थात् प्रत्येक वस्तु में अनेक गुण, धर्म या शक्तियाँ हैं। जब कोई मनुष्य एक शक्ति की अपेक्षा से उसका वर्णन करता है तब वह अन्य शक्तियों के सत्व का अन्य अपेक्षाओं से समर्थन करता ही है। इस अन्य शक्तियों की अपेक्षा को जैन सिद्धान्त 'स्यात्' पद से प्रकट करता है। वस्तु तत्त्व के कथन में इस स्यात् अर्थात् कथञ्चित पद के प्रयोग का नाम ही स्याद्वाद है। अनेक उदाहरणों द्वारा इस सिद्धान्त को स्पष्ट करते हुए महाकवि ने कहा है
मुसलमान कुरान का आदर करता है, किन्तु ईसाई उसे न मानकर बाइबिल को मानता है, किन्तु ब्राह्मण वेद को ही प्रमाण मानते हैं कुरान या बाइबिल को नहीं। इस दृष्टान्त में मुसलमान और ईसाई परस्पर विरोधी होते हुए भी वेद को प्रमाण नहीं मानने में दोनों अविरोधी है। इस स्थिति को एक मात्र स्याद्वाद सिद्धान्त ही यथार्थत् कहने में समर्थ है। इसी प्रकार- गाय, बकरी और ऊँट तीनों ही बेरी के पत्तों को खाते हैं किन्तु बबूल के पत्तों को ऊँट और बकरी ही खाते हैं गाय नहीं। मन्दार (आकडा) के पत्तों को बकरी ही खाती है ऊँट और गाय नहीं किन्तु मनुष्य बेरी, बबूल और आक इन तीनों के ही पत्तों को नहीं खाता है इसलिए अनन्त धर्म के मानने वाले भव्य, जो वस्तु एक के लिए भक्ष्य या उपादेय है वही दूसरों के लिए अभक्ष्य या हेय हो जाती है। इसे समझना ही स्याद्वाद