Book Title: Anekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 381
________________ अनेकान्त 64/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2011 है, अत: सब लोगों को इसका ही एक भाव से आश्रय लेना चाहिए।' जयोदय में जयकुमार द्वारा की गई जिनेन्द्र देव की स्तुति में स्याद्वाद सिद्धान्त को प्रतिपादित करते हुए कहा गया है विरागमेकान्ततया प्रतीमः सिद्धौ रतः किन्तु भवान् सुषीम॥ विश्वस्य संजीवनमात्मनीनं स्याद्वादमुज्झेत् किमहो अहीना अर्थात् हे अतिशय शोभायमान ! जिनेन्द्र! हम आपके भक्त आपको यद्यपि सर्वथा विराग-रागरहित जानते हैं पर आप सिद्धि-मुक्तिवधू में लीन हैं, उसे प्राप्त करना चाहते हैं अतः सर्वथा विराग-रागरहित किस प्रकार हुए? हे अहीन! हे सर्वगुण सम्पन्न भगवन्! आप क्या समस्त जगत् के हितकारी अपने स्याद्वाद सिद्धान्त को छोड़ सकते हैं? अर्थात् नहीं छोड़ सकते। कहने का भाव यह है कि आप सांसारिक पदार्थों का राग छोड़ देने से विराग हैं और सिद्धि स्वात्मोपलब्धिः में रतलीन होने में सराग जान पड़ते हैं इसलिए स्याद्वाद सिद्धान्त की अपेक्षा आप विराग भी हैं सराग भी हैं। काशीनरेश का दूत सुलोचना के गुण सौन्दर्य की प्रशंसा करते हुए जयकुमार से कहता है- कि यद्यपि उसका शरीर वही है जो बचपन में था और वे ही अंग-प्रत्यंग है, फिर भी युवावस्था के कारण उनमें अनोखा सौन्दर्य आ गया है जैसे कि स्यात्कार (स्याद्वाद) से वाणी में विचित्रता आ जाती है। इसी सिद्धान्त का वर्णन करते हुए कहा गया है कि यद्यपि हंस बाहर से शुक्ल वर्ण है किन्तु भीतर से उसका रक्तलाल वर्ण का है उसके पैर श्वेत और लाल दोनों ही वर्गों के होते हैं। ऐसी स्थिति में विवेकी पुरुष उसको किस रूप वाला कहे? अतएव कथाञ्चितवाद स्याद्वाद को स्वीकार करने पर ही उसके ठीक निर्दोष रूप का वर्णन किया जा सकता है।' । इसी प्रकार- घट भी पदार्थ है, पट भी पदार्थ है किन्तु शीत से पीड़ित मनुष्य को घट से कोई प्रयोजन नहीं। इसी प्रकार प्यास से पीड़ित पुरुष घट को चाहता है, पट को नहीं। इससे यह सिद्ध होता है कि पदार्थपना घट और पट में समान होते हुए भी प्रत्येक पुरुष अपने अभीष्ट को ही ग्रहण करता है अनभीप्सित पदार्थ को नहीं। इस प्रकार प्रत्येक मनुष्य को स्याद्वाद सिद्धान्त को भक्ति से स्वीकार करना चाहिए घटः पदार्थश्च घटः पदार्थः शैत्यान्वितस्यास्ति घटेन नार्थः। पिपासुरभ्येति यमात्मशक्त्या स्याद्वादमित्येतु जनोऽति भक्त्या। स्याद्वाद को बहुत सुन्दर उदाहरण से स्पष्ट करते हुए आचार्य ज्ञानसागर जी ने कहा है कि कोई रेखा न स्वयं छोटी है और न बड़ी है यदि उसी के पास उससे छोटी रेखा खींच दी जाय तो वह पहली रेखा बड़ी कहलाने लगती है और यदि उसी के दूसरी ओर बड़ी रेखा खींच दी जाय तो वह छोटी कहलाने लगती है। इस प्रकार वह पहली रेखा छोटी और बड़ी दोनों रूपों को अपेक्षा-विशेष से धारण करती है, वस्तु का स्वभाव भी ठीक उसी प्रकार से जानना चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है कि अपेक्षा विशेष से 'वस्तु' में अस्तित्व व नास्तित्व धर्म सिद्ध होते हैं। प्रत्येक वस्तु अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा अस्ति रूप है और द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा नास्ति रूप है।

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