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सर्वार्थसिद्धि में वर्णित निक्षेप
- पुलक गोयल
तत्त्वार्थसूत्र जैनधर्म का एक प्राचीनतम ग्रन्थ है और संस्कृत में सूत्ररूप रचना द्वारा जैन सिद्धान्त का विधिवत् संक्षेप में परिचय कराने वाला सम्भवतः सर्वप्रथम ग्रन्थ है। लोकप्रियता में भी यह जैन साहित्य का अद्वितीय ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ की समय-समय पर अनेक टीकाएँ लिखी गयी हैं। दिगम्बर सम्प्रदाय में इसकी देवनन्दी पूज्यपाद आचार्य कृत सर्वार्थसिद्धि नामक वृत्ति सर्व प्राचीन मानी जाती है। सूत्रों के गूढ़ रहस्य को सरलता से परिभाषित करते हुए आबालवृद्ध धर्मामृत पिपासुओं के लिए तृप्ति प्रदायक यह कृति अत्यन्त रूचिकर एवं प्रवाहपूर्ण है। सर्वार्थसिद्धि में वर्णित निक्षेप की अवधारणा :
निक्षेप पद का प्रयोग तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 6 सूत्र 9 में प्राप्त होता है। यथानिर्वर्तना-निक्षेप-संयोग-निसर्गा द्वि-चतुर्द्वित्रिभेदाः परम।।६/९॥
अर्थ- पर अर्थात् अजीवाधिकरण क्रम से दो, चार, दो और तीन भेदवाले निर्वर्तना, निक्षेप, संयोग और निसर्गरूप है।
उपर्युक्त सूत्र की टीका में सर्वार्थसिद्धिकार निक्षेप पद की परिभाषा प्रस्तुत करते हैं। 'निक्षिप्यत इति निक्षेपः स्थापना।' अर्थ- निक्षेप का अर्थ स्थापना अर्थात् रखना है। (पृ.250 स. सि.) यहाँ निक्षेप के चार भेद भी कहे गए हैं। 'निक्षेपश्चतुर्विधः अप्रत्यवेक्षित-निक्षेपाधिकरणं दुःप्रमृष्टनिक्षेपाधिकरणं सहसा- निक्षेपाधि करणमनाभोगनिक्षेपाधिकरणं चेति।' अर्थ- निक्षेप चार प्रकार का है- अप्रत्यवेक्षित निक्षेपाधिकरण, दुष्प्रमृष्टनिक्षेपा- धिकरण, सहसानिक्षेपाधिकरण और अनाभोगनिक्षेपाधि करण। (पृ.251 स.सि.)।
निक्षेप पद का पुनः प्रयोग तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 7 सूत्र 36 में भी दृष्टव्य है। यथा सचित्तनिक्षेपापिघानपरव्यपदेशमात्सर्यकालातिक्रमाः॥ ७/३६॥ अर्थ-सचित्त-निक्षेप, सचित्तापिधान, परव्यपदेश, मात्सर्य और कालातिक्रम ये अतिथिसंविभाग व्रत के पाँच अतिचार हैं। (पृ.288 स. सि.)।
उपर्युक्त सूत्र की टीका में यद्यपि निक्षेप पद का अर्थ सूचित नहीं किया गया, तथापि निक्षेप का अर्थ रखना है, यह भलीभाँति स्पष्ट है।
निक्षेप पद का प्रयोग तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 9 सूत्र 5 में भी दिखाई देता है। यथा'ईर्याभाषैषणादाननिक्षेपोत्सर्गाः समितयः॥९/५॥'
अर्थ- ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेप और उत्सर्ग ये पाँच समितियाँ हैं। (पृ.322 स.सि.)