Book Title: Anekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 368
________________ 80 प्राणिनां रक्षणं प्रेधा तथाक्षप्रसरार्हतः। एकादेशमिति प्राहुः संयम गृहमेधिनाम् ॥३० अर्थात् प्राणियों की मन, वचन, काय से रक्षा करना और इन्द्रियों के विषयों में बढ़ते हुए प्रसार को रोकना इसे गृहस्थों का एकदेश संयम कहते हैं। ५. तप श्रावक और उनके षड् आवश्यक कर्त्तव्य जिस प्रकार साधुओं के लिए तप आवश्यक है उसी प्रकार गृहस्थों के लिये भी वह एकदेशकरणीय है। आचार्य अमृतचन्द्र ने अन्तरंग तप और बाह्य तप के दो भेद किये हैं, ये दोनों भी छः प्रकार क हैं। (१) अन्तरंग तप विनय, वैयावृत्य, प्रायश्चित, उत्सर्ग, स्वाध्याय और ध्यान। (२) बहिरंग तप- अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश चारित्रसार में भी अनशनादि बारह प्रकार के तप स्वीकृत किये गये हैं'तपोऽनशनादिद्वादशविद्यानुष्ठानम् ' सागारधर्मामृत में 'तपश्चर्य च शक्तितः ' कहकर शक्ति के अनुसार तप करने की प्रेरणा दी गयी है। कुन्दकुन्द श्रावकाचार में मिथ्या तप का भी फल बताया है उन्होंने कहा है कि अल्पबुद्धि पुरुष लोक पूजा, अर्थ, लाभ और अपनी प्रसिद्धि के लिये तप करता है, वह अपने शरीर का शोषण ही करता है, उसे उसके तप का कुछ भी फल नहीं मिलता है पूजालाभप्रसिद्ध्यर्थ तपस्तप्येत योऽल्पधीः । शोष एवं शरीरस्य न तस्य तपसः फलम् ॥३४ ६. दान महापुराण में आचार्य जिनसेन ने दान के चार भेद करते हुए श्रावकों केलिये आवश्यक माना है। दान के चार भेद है- 1. दयादत्ति, 2 पात्रदत्ति, 3. समदत्ति, 4. अन्वयदत्ति। " (१) दयादत्ति - अनुग्रह करने के योग्य दया के पात्र दीन प्राणिसमुदाय पर मन-वचन-का की निर्मलता के साथ अनुकम्पापूर्वक उनके भय दूर करने को विद्वान् लोगों ने दयादत्ति कहा है। * (२) पात्रदत्ति- महान् तपस्वी साधुजनों के प्रतिगृह (पडिगाहन) आदि नवद्या भक्तिपूर्वक आहार, औषध आदि का देना पात्रदत्ति कहा जाता है। 7 (३) समदत्ति क्रिया, मन्त्र और व्रत आदि से जो अपने समाज है, ऐसे अन्य साधर्मी - बन्धु के लिये संसारतारक उत्तम गृहस्थ के लिए भूमि, सुवर्ण आदि देना समदत्ति है तथा मध्यमपात्र को समान सम्मान की भावना से जो श्रद्धापूर्वक दान दिया जा है, वह भी समानदत्ति है। 38 (४) अन्वयदत्ति (सकलदत्ति) अपने वंश को स्थिर रखने के लिये पुत्र को कुल धर्म और धन के साथ जो कुटुम्ब रक्षा का भार पूर्ण रूप से समर्पण किया जाता है उसे सकलदत्ति कहते हैं। आचार्य अमितगति कहते हैं कि जिसे फल की इच्छा

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