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श्रावक और उनके षड् आवश्यक कर्त्तव्य
___1. प्रस्तावना, 2. पुराकर्म, 3. स्थापना, 4. सन्निधापन, 5. पूजा, 6. पूजा का फल २. गुरु पूजा
गुरुभक्ति भारतीय संस्कृति में प्राचीनकाल से ही विख्यात है। सभी जैन आचार्यों ने गुरु भक्ति को श्रावकों का आवश्यक कर्त्तव्य माना है। रत्नकरण्डश्रावकाचार में आचार्य समन्तभद्र ने सत्यार्थ गुरु का लक्षण दिया है, वे कहते हैं कि जो पंचेन्द्रियों की आशा के वश में रहित हो, खेती-पशु-पालन आदि आरंभ से रहित हो, ज्ञानाभ्यास, ध्यान, समाधि
और तपश्चरण में निरत हो ऐसे तपस्वी निर्ग्रन्थ गुरु प्रशंसनीय होते हैं। पण्डित मेधावी ने धर्मसंग्रह श्रावकाचार में कहा है कि दर्शनाचार, ज्ञानाचार आदि पंच प्रकार के आचार से युक्त सूरि (आचार्य) द्वादशांग शास्त्र को जानने वाले उपाध्याय तथा अपनी आत्मा की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने वाले साधु (मुनि) ये सब पूजन योग्य है। प्रश्नोत्तरश्रावकाचार में निर्ग्रन्थ अर्थात् परिग्रह रहित को ही गुरु मानने को कहा है, अन्य की नहीं
'निर्ग्रन्थश्च गुरुर्नान्य एतत्सम्यक्त्वमुच्यते।' धर्मोपदेशपीयूषवर्ष श्रावकाचार में भी जो रत्नत्रयधारी हो तथा स्वयं को एवं दूसरों को संसार से पार लगाये उन्हीं गुरु को पूजनीय माना है
सन्त ते गुरवो नित्यं ये संसार-सरित्पतौ।
रत्नत्रयमहानावा स्व-परेषां च तारकाः॥२४ उमास्वामीश्रावकाचार में कहा गया है कि गुरु के बिना भव्यजीवों को भव से पार उतारने वाला कोई भी नहीं है और न ही गुरु के बिना अन्य कोई मोक्षमार्ग का प्रणेता ही हो सकता है। अतः सज्जनों को श्री गुरु की सेवा करनी चाहिए।
गुरुं बिना न कोऽप्यास्ति भव्यानां भवतारकः। मोक्षमार्गप्रणेता च सेव्याऽतः श्रीगुरुः सताम्॥ गुरुणां गुणयुक्तानां विधेयो विनयो महान्।
मनोवचनकायैश्च कृतकारितसम्मतैः॥२५ अर्थात् गुणों से संयुक्त गुरुओं की मन-वचन-काय से कृत कारित अनुमोदना से महान् विनय करनी चाहिए।
पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका में गुरु की उपासना का सुफल तथा नहीं करने पर दुष्फल इन दोनों का ही वर्णन है
गुरोरेव प्रसादेन लभ्यते ज्ञानलोचनम्। समस्तं दृश्यते येन हस्तरेखेव निस्तुषम्। ये गुरूं नैव मन्यन्ते तदुपास्तिं न कुर्वते।
अन्धकारो भवेत्तेषामुदितेऽपि दिवाकरे॥२६ अर्थात् गुरु के प्रसाद से ही ज्ञान रूप नेत्र प्राप्त होता है, जिसके द्वारा समस्त विश्वगत पदार्थ हस्तरेखा के समान स्पष्ट दिखाई देते हैं। इसलिये ज्ञानार्थी गृहस्थों को भक्तिपूर्वक गुरुजनों की वैयावृत्य और वन्दना आदि करना चाहिये। जो गुरुजनों का सम्मान