Book Title: Anekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 365
________________ अनेकान्त 64/4 अक्टूबर-दिसम्बर 2011 (१) नित्य-मह (सदार्पण) प्रतिदिन अपने घर से जिनालय में ले जाये गये गंध अक्षत आदि के द्वारा जिन भगवान् की पूजा नित्यमह कहलाता है। भक्ति से जिनबिम्ब और जिनालय आदि का निर्माण कराना तथा उनके संरक्षण के लिये ग्राम आदि का राज्य शासन के अनुसार, पंजीकरण करके दान देना भी नित्यमह कहलाता है। अपनी शक्ति के अनुसार, मुनीश्वरों की नित्यआहार आदि दान के साथ जो पूजा की जाती है वह भी नित्यमह कहलाती है। 14 (२) चतुर्मुख - मह ( महामह, सर्वतोभद्र ) 77 महामुकुट - बद्ध राजाओं के द्वारा की जाने वाली महापूजा को चतुर्मुख - यह आदि नामों से जाना जाता है। 15 (३) कल्पद्रुम-मह ( कल्पवृक्ष-यज्ञ ) चक्रवर्तियों के द्वारा " तुम लोग क्या चाहते हो?" इस प्रकार याचक जनों से पूछ-पूछकर जगत् की आशा को पूर्ण करने वाला किमिच्छक दान दिया जाता है, वह कल्पद्रुम मह या कल्पवृक्ष यज्ञ कहलाता है । " (४) ( आष्टाह्निक- मह ) आष्टाहिका पर्व में सामान्यजनों के द्वारा किया जाने वाला पूजन, आष्टाहिक- मह कहलाता है। 7 17 (५) इन्द्रध्वज - मह उपर्युक्त चारों प्रकार की पूजनों के द्वारा इन्द्रों के द्वारा की जाने वाली महान पूजा को इन्द्रध्वज मह कहते हैं, आज के युग में प्रतिमा की प्रतिष्ठा के निमित्त प्रतिष्ठाचार्यो के द्वारा जो पंचकल्याणक पूजा की जाती है, उसे इन्द्रध्वज - मह कहा जाता है। इसके अलावा भी जो पूजन किया जाता है, उन सबका समावेश इन पांच भेदों में हो जाता है। आचार्य जिनसेन इस विधि से युक्त महान् पूजन को षट् आवश्यकों (कर्त्तव्यों) में इज्या वृत्ति (देव पूजन) कहते हैं।" देव पूजा के दो रूप बताते हुए आचार्य कहते हैं कि एक तो पुष्पादि में जिन भगवान् की स्थापना करके पूजा की जाती है, दूसरे जिनबिम्बों में जिन् भगवान् की स्थापना करके पूजा की जाती है, अन्य दूसरे मतों की प्रतिमाओं में जिनेन्द्रदेव की स्थापना करके पूजा नहीं करनी चाहिए। इस प्रकार अतदाकार और तदाकार पूजन के ( अतदाकार) जिनेन्द्रदेव की स्थापना करके पूजन करते हैं। उसकी पूजा विधि बताते हुए कहते हैं कि पूजा विधि के ज्ञाताओं को सदा अर्हन्त और सिद्ध को मध्य में आचार्य को दक्षिण में, उपाध्याय को पश्चिम में, साधु को उत्तर में और पूर्व को सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को क्रम में भोजपत्र पर लकड़ी के पाटिये पर, वस्त्र पर शिलातल पर रेत से बनी भूमि पर, पृथ्वी, आकाश में और हृदय मतें स्थापित करना चाहिए, फिर पूजा करनी चाहिए।" इसके बाद प्रतिमा में स्थापना करके तदाकार पूजन करने की विधि आचार्यों ने बतायी। आचार्य ने देव पूजा के छः प्रकार बतलाये हैं

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