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अनेकान्त 64/4 अक्टूबर-दिसम्बर 2011
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पूजा उपासना करता है, निर्ग्रन्थ गुरुओं की सेवा वैयावृत्य में तत्पर रहता है और सत्यार्थ धर्म की आराधना करते हुए उसे यथाशक्ति धारण करता हैउसे उपासक कहा जाता है। श्रमणों की उपासना करने वाले की अपेक्षा श्रमणोपासक, सत्यार्थ धर्म की साधना करने वाला होने से सागार कहलाता है, यद्यपि साधारणतया ये सब नाम पर्यायवाची माने गये हैं। तथापि यौगिक दृष्टि से परस्पर विशेषता होने से अलग-अलग नाम उल्लिखित है।
श्रावक अणुव्रती व रत्नत्रय का पालक होता है और रत्नत्रय का धारक होने से हीउसे श्रावक संज्ञा दी गयी है। आचार्य कुन्दकुन्द देव ने गृहस्थ साधु के लिए 'सावय' (श्रावक) और सागार शब्द प्रयुक्त किये हैं। उन्होंने श्रावक को सग्रन्थ अर्थात् परिग्रह सहित संयमाचरण का उपदेश दिया है। पंचाणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत इस तरह बारह प्रकार का संयमाचरण बताकर देशविरत श्रावक को दर्शन, व्रत सामायिक आदि बारह श्रेणियाँ भी बतायी है।'
व्रती
श्रावक के लिये उपासक शब्द प्राचीनकाल में बहुश: प्रचलित रहा है। इसी कारण गृहस्थ के आचार विषयक ग्रन्थों का नाम प्रायः उपासकाध्ययन या उपासकाचार रहा है। स्वामी समन्तभद्र द्वारा निर्मित रत्नकरण्ड को भी उसके संस्कृत टीकाकार आचार्य प्रभाचन्द्र ने 'रत्नकरण्डकनाम्नि उपासकाध्ययने' वाक्य में रत्नकरण्ड नामक उपासकाध्ययन ही कहा है। घर में रहने के कारण गृहस्थ की सागार संज्ञा है। इसे गृही, गृहमेधी नाम भी प्रयुक्त हुए हैं। यहाँ गृह वस्त्रादि के प्रति आसक्ति का उपलक्षण प्रतीत होता है। अणुव्रत रूप देशसंयम को धारण करने के कारण श्रावक की देशसंयमी, देशव्रती और अणुव्रती भी कहा गया है।
षड् आवश्यक कर्त्तव्य
नित्य के अवश्यकरणीय रूप कर्त्तव्यों को 'आवस्सय' या आवश्यक कहते हैं। सामान्यतः अवश का अर्थ अकाम, अनिच्छु, स्वाधीन, स्वतंत्र, रागद्वेष से रहित तथा इन्द्रियों की आधीनता से रहित होता है तथा इन गुणों से युक्त अर्थात् जितेन्द्रिय व्यक्ति की अवश्यकरणीय क्रियाओं को आवश्यक कहते हैं। मूलाचार में आचार्य वट्टकेर ने कहा है
'ण वसो अवसो अवस्स कम्ममावासगं त्ति बोधण्वा । 5
अर्थात् जो रागद्वेषादि के वश में नहीं होता वह अवश है तथा उस (अवश) का आचारण या कर्त्तव्य आवश्यक कहलता है।
श्रावकों का प्रतिदिन करने वाले छः आवश्यक बतलाये हैं। इन आवश्यकों में परिवर्तन भी हुए हैं। आचार्य अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय में मुनियों के षडावश्यकों को ही यथाशक्ति गृहस्थों के लिए करणीय माना है
जिनपुंगवप्रवचने मुनीश्वराणां यदुक्तमाचरणम्।
सुनिरुप्य निजां पदवीं शक्तिं च निषेव्यमेतदपि ।। "
है
यशस्तिलक चम्पू में श्री सोमदेव सूरि पडावश्यकों का उल्लेख इस प्रकार किया