Book Title: Anekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 345
________________ अनेकान्त 64/4 अक्टूबर-दिसम्बर 2011 कहना अनुचित नहीं है। निःशल्यत्त्व और व्रतित्त्व में अंग-अंग भाव विवक्षित है क्योंकि केवल हिंसादि विरक्ति रूप व्रत के सम्बन्ध में व्रती नहीं होता जब तब कि शल्यों का अभाव न हो। शल्यों का अभाव होने पर ही व्रत के सम्बन्ध से व्रती होता है। उदाहरण दिया गया है कि जैसे बहुत दूध और घी वाला गोमान कहा जाता है। बहुत दूध और घृत के अभाव में बहुत सी गायों के होने पर भी गोमान नहीं कहलाता। उसी प्रकार सशल्य होने पर व्रतों के रहते हुए भी व्रती नहीं कहा जा सकता है। जो कि निःशल्य होता वही व्रती होता है। उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि व्रती वही है जो निःशल्य होकर व्रत पालन करता है । केवल व्रत पालन करें और निःशल्य न हो तो व्रती नहीं है निःशल्य है और व्रत नहीं है तो भी व्रती नहीं । व्रती की यह परिभाषा अणुव्रती और महाव्रती दोनों पर बराबर लागू होती है। इसीलिये आगे सूत्र कहना पड़ा कि 'आगार्यनगारश्व' अर्थात् अगारी गृहस्थ और अनगारी - मुनि के भेद से व्रती दो प्रकार के हैं: अगार जिसके है, वह अगारी कहलाता है जिसके अगार नही है, वह अनगारी कहलाता है। इस प्रकार अगारी- अनगारी की परिभाषा करने पर प्रश्न उठता है कि किसी कारणवश जो घर छोड़कर वन में रहने लगा उसके (गृहस्थ) अनगारपना सिद्ध होगा । इसका समाधान आचार्य अकलंकदेव ने किया है कि यहाँ भावागार विवक्षित है। 15 57 इसी प्रकार सम्पूर्णव्रतों का पालन न कर एक देशव्रत पालन करता है तब भी वही व्रती है। जैसा घर के कोठे में रहने वाले भी नगरवासी कहा जाता है। अठारह हजार शील और चौरासी लाख उत्तरगुणों को धारण करने वाला मुनि जैसे पूर्णव्रती है वैसे अणुव्रतधारक संयतासंयत व्रती नहीं है फिर भी अणुव्रतधारी भी व्रती कहलाता ही है। हिंसादि पाँचों पापों में से किसी एक पाप का त्याग करने से अगारी नहीं अपितु पाँचों का एक देश त्याग करने वाला अगारी है। इसलिये सूत्रकार को सूत्र बनाना पड़ा कि 'अणुव्रतोऽगाणी' अर्थात् अणुव्रतों का धारक अगारी है। यहाँ पर प्रश्न उठता है कि जिस प्रकार अणुव्रतोऽगारी सूत्र दिया उस प्रकार महाव्रतोऽनगारी सूत्र भी देना चाहिये था परन्तु इस विषय में न सर्वार्थसिद्धि में समाधान है और न तत्त्वार्थवार्तिक में परन्तु आचार्य विद्यानन्द ने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में समाधान दिया है: तत्र चाणुव्रतोंऽगारी सामर्थ्यात्स्यान्महाव्रतः । अनगार इति ज्ञेयमंत्र सूचांतराद्विना ।। वहाँ अगारी और अनगार दो व्रतियों का निरूपण करने के अवसर पर सूत्र द्वारा एक सूक्ष्मव्रत वाले को अगारी कह देने की सामर्थ्य से यहाँ अन्य सूत्र के बिना ही 'महान व्रतों की धारी पुरुष अनगार है' यो दूसरा व्रती समझ लेना चाहिये। तत्त्वार्थवार्तिक में कहा है कि अणूनि व्रतानि अस्य सोऽणुव्रतः। अणु है व्रत जिसके वह अणुव्रत कहलाता है। फिर प्रश्न है कि व्रतों में अणुपना कैसे ? आचार्य अकलंकदेव समाधान देते हैं कि सर्व सावद्य योग की निवृत्ति असम्भव होने से अणुव्रत कहलाते हैं। अणुव्रती द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय त्रस प्राणियों के व्यपरोपण

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