Book Title: Anekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 351
________________ अनेकान्त 64/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2011 इस गुणस्थान में नहीं पहुँचता। जयधवल में यतिवृषभाचार्य ने चूर्णि में लिखा है कि जिसने अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करके द्वितीयोपशम को प्राप्त कर लिया है वह भी द्वितोपशम से गिरकर सासादन को प्राप्त हो सकता है। षट्खण्डागम में उक्त कथन को स्वीकार न कर यही बात स्वीकार की है कि प्रथमोपशम सम्यक्त्व से युक्त कथन को स्वीकार न कर यही बात स्वीकार की है कि प्रथमोपशम सम्यक्त्व से च्युत होकर सासादनगुणस्थान को प्राप्त होता है।' गोम्मटसार ने "आदिसम्मत्त" पद द्वारा प्रथमोपशम से गिरकर सासादन में जाना कहा है। द्वितीयोपशम से गिरकर सासादन को प्राप्त नहीं होता है। प्रथमोपशमसम्यक्त्व से गिरने वाले जीव के अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ इनमें से किसी का भी उदय होते ही सासादनगुणस्थान होता है किसी को अनन्तानुबन्धी क्रोध से प्रेरित सासादनसम्यग्दर्शन होता है। किसी को मान से, किसी को माया से, किसी को लोभ से प्रेरित सासादनपना होता है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्र): सम्यग्मिथ्यात्व नामक जात्यन्तर सर्वघातिप्रकृति के उदय से केवल सम्यक्त्वरूप या मिथ्यात्वरूप परिणाम न होकर भिन्नरूप परिणाम होते हैं। जिस प्रकार दही और गुड़ को इस प्रकार मिलाने पर जिससे उनको भिन्न नहीं किया जा सके, उस द्रव्य के प्रत्येक परमाणु का रस मिश्ररूप होता है, उसी प्रकार मिश्रपरिणामों में भी एक ही काल में सम्यक्त्व और मिथ्यात्वरूप परिणाम रहते हैं। समीचीन असमीचीन श्रद्धा वाला सम्यग्मिथ्यादृष्टि होता है। इस गुणस्थान में मृत्यु नहीं होती, न मारणान्तिक समुद्धात होता है, न नवीन आयु का बन्ध होता है। इस गुणस्थान में रहने वाला जीव पतन करे तो प्रथम गुणस्थान में जाता है और ऊपर चढ़े तो चतुर्थ गुणस्थान में जाता है। अविरतसम्यग्दृष्टि : जो प्रत्याख्यानावरणादि चारित्रमोह की प्रकृतियों का उदय होने से चारित्र धारण नहीं कर सकता मात्र जिनेन्द्र प्रणीत तत्त्वों का श्रद्धान करता है, उसे अविरतसम्यग्दृष्टि कहते हैं। इस गुणस्थानवर्ती प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य भाव प्रगट होते हैं। सम्यग्दर्शन का घात या उसका अवरोध करने वाले दर्शनमोहनीयकर्म का क्षय, उपशम अथवा क्षयोपशम करके जो आत्मा सम्यग्दर्शन (शुद्ध श्रद्धा की प्राप्ति कर लेता है किन्तु चारित्र-विघातक मोहनीयकर्म का क्षय, उपशम या क्षयोपशम न कर सकने के कारण जो अहिंसादि व्रतों को अंगीकार नहीं कर सकता, उस आत्मा की संज्ञा अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान कहलाती है। यह कुलाचार का पालक और विवेकी होता है। क्षायिक, औपशमिक और क्षायोपशमिक के भेद से तीन प्रकार का सम्यक्त्व होता है। क्षायिक सम्यक्त्व अपतन रूप होता है। इस गुणस्थान से देशविरत या अप्रमत्तगुणस्थान में पहुँच सकता है अथवा प्रथमोपशम वाला या क्षयोपशम वाला गिरकर तीसरे दूसरे प्रथम गुणस्थान में भी पहुँच जाता

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