Book Title: Anekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 350
________________ जैनदर्शन में गुणस्थानः एक अनुचिन्तन होता है, विपरीत अभिप्राय वाला होने से उसे मिथ्यादृष्टि कदापि नहीं कह सकते, क्योंकि इस गुणस्थानवर्ती के मिथ्यात्वकर्म के उदय से उत्पन्न हुआ विपरीत अभिनिवेश नहीं होता, इसलिए वह मिथ्यादृष्टि नहीं है। यहाँ रहस्य यह है कि विपरीताभिनिवेश दो प्रकार का होता है, अनन्तानुबन्धी जनित और मिथ्यात्वजनित। उनमें से दूसरे गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी जनित विपरीताभिनिवेश ही पाया जाता है। यही कारण है कि यह मिथ्यात्व गुणस्थान से भिन्न स्वतंत्र गुणस्थान है। इस गुणस्थान को स्वतंत्र मानने से अनन्तानुबन्धी प्रकृतियों की द्विस्वभावता का कथन सिद्ध हो जाता है। दर्शनमोहनीयकर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम से सासादन रूप परिणाम नहीं होता। यही कारण है कि सासादन को मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि अथवा सम्यमिथ्यादृष्टि नहीं कहा गया, जिस अनन्तानुबन्धी के उदय से द्वितीय गुणस्थान में जो विपरीताभिनिवेश होता है, वह अनन्तानुबन्धी दर्शनमोहनीय का भेदन होकर चारित्र का आवरण होने से चारित्रमोहनीय का भेद है इसलिए यह सासादनगुणस्थान है। यह गुणस्थान गिरती हुई अवस्था का है अर्थात् सम्यक्त्वरूपी रत्नपर्वत के शिखर से गिरकर जो जीव मिथ्यात्व रूपी भूमि के सम्मुख हो चुका है, जिसका सम्यक्त्व नष्ट हो रहा है परन्तु अभी तक मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं हुआ है वह जीव सासादनगुणस्थानवर्ती जानना चाहिए।' यह अपर्याप्त नारकियों को नहीं होता है। यह स्पष्ट है कि कोई भी जीव प्रथम गुणस्थान से दूसरे गुणस्थान में नहीं जाता। चतुर्थादि गुणस्थान से कषायों के उदय के कारण जब वह नीचे गिरने लगता है तब यह गुणस्थान आता है। यह गुणस्थान उत्क्रान्ति का नहीं है अपितु अपक्रान्ति का है। पूर्ण मिथ्यात्व में जाने से पहले इसमें सम्यक्त्व का थोड़ा सा आभास रहता है, जैसे सूर्य छिपने के पश्चात् रात्रि का पूर्ण अंधकार आने के बीच की अवस्था इस गुणस्थान में जीव के परिणामिकभाव होते हैं क्योंकि इसमें दर्शनमोहनीयकर्म के उदय, क्षय एवं क्षयोपशम का अभाव होता है। इस गुणस्थान का अधिक से अधिक समय छ: आवली होता है। एक जीव की अपेक्षा सासादनसम्यग्दृष्टि का जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल छः आवली प्रमाण है और एक समय से लेकर एक-एक समय अधिक करते हुए एक समय कम छः आवली तक मध्यम काल है। आचार्य वीरसेन स्वामी इसी को स्पष्ट करते हुए कहते हैं उवसमसम्मत्तद्धा जत्तियमेत्ता हु होई अवसिट्ठा। पडिवज्जंता साणं तत्तियभेत्ता य तस्सद्धा॥ उवसमसम्मत्तद्धा जइ छावलिया हवेज्ज अवसिट्ठा। तो सासणं पवज्जइ णो हेढुक्कट्ठकालेसु॥ ३१-३२॥ ध.पु.४ पृ.३४१-३४२ जितने प्रमाण उपशमसम्यक्त्व का काल अवशिष्ट रहता है उस समय सासादनगुणस्थान को प्राप्त होने वाले जीवों का भी उतने प्रमाण ही सासादनगुणस्थान का काल होता है। यदि उपशमसम्यक्त्व का काल छः आवलि प्रमाण शेष हो तो जीव सासादनगुणस्थान को प्राप्त हो सकता है। यदि छ: आवलि से अधिक काल शेष रहने पर

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