Book Title: Anekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 359
________________ अनेकान्त 64/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2011 71 भी वर्णित है। उत्तराध्ययन सुखबोधा वृत्ति प्राकृत कथाएँ विद्वानों के लिए आकर्षण का विषय रही है। जर्मनी के प्रसिद्ध विद्वान् डॉ. फीके ने “साम्यसुत्त' नामक प्राकृत कथा पर अपना शोधपूर्ण निबन्ध लिखा है। यह कथा इसी वृत्ति से ली गयी है। इसी तरह डॉ. हर्मन जेकोबी ने महाराष्ट्रीय कथाएँ नामक अपने निबन्ध में उत्तराध्ययन वृत्ति से नई कथाएँ लेकर उन पर शोधपूर्ण सामग्री प्रस्तुत की है। उत्तराध्ययन वृत्ति की इन कथाओं में से सात कथाओं का संकलन मुनि जिनविजय जी ने प्राकृत कथा संग्रह के नाम से विक्रम संवत् 1978 में अहमदाबाद से प्रकाशित किया है। प्राकृत कथाओं की प्रचुरता के कारण हरिभद्र शैली का अनुसरण करती हुई प्रतीत होती है। वैराग्यरस से परिप्लावित ब्रह्मदत्त और अगड़दत्त जैसी कथाओं के संयोग से इस सुविशाल टीका में जान आ गयी है और विभिन्न ग्रन्थों और गाथाओं के उदाहरण के कारण तथा नाना विषयों की विवेचना के कारण इसकी सार्वजनिक उपयोगिता सिद्ध हुई है। आचार्य नेमिचन्द्र सूरि ने उत्तराध्ययन के प्रथमाशों की जितनी विस्तृत टीका की है। उत्तरांशों की टीरका में उतना विस्तार नहीं है। अन्तिम 12,13 अध्ययनों की टीका अधिक संक्षिप्त होती गयी है उसमें न कोई विशेष कथाएँ न कोई अन्य उद्धरण ही है। उत्तराध्ययन सुखबोध टीका सांस्कृतिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। उसमें तत्कालीन समाज और संस्कृति के सम्बन्ध में विविध सामग्री प्राप्त होती है। डॉ. जगदीश चन्द्र जैन एवं देवेन्द्रमुनि ने इस टीका की सांस्कृतिक सामग्री पर कुछ प्रकाश डाला है। उत्तराध्ययन की सुखबोधा टीका से ज्ञात होता है कि राजा का उत्तराधिकारी उसका ज्येष्ट पुत्र होता था। विरक्त होने पर लघु पुत्र को राज्य दे दिया जाता था। राजकुमार यदि दुर्व्यसनों में फंस जाता तो उसे देश निकाला भी दे देते थे। विवाह के समय तिथि और मुर्हत भी देखे जाते थे। छोटी-छोटी बातों के लिए पत्नियों को छोड़ देने की भी प्रथा थी। एक वणिक् ने अपनी पत्नी को इसलिए छोड़ दिया कि वह सारा दिन शरीर की साज-सज्जा किया करती थी और घर का बिल्कुल ध्यान नहीं रखती थी सामान्य स्त्रियों के अतिरिक्त वेश्याओं का भी सम्मान था। वेश्याएं नगर की शोभा, राजाओं की आदरणीय और राजधानी की रत्न मानी जाती थी। इस सुखबोध टीका में अनेक रोग और उनकी परिचर्या का भी उल्लेख मिलता है। यथा- श्वास, खाँसी, ज्वर, दाह, उदरशूल, भगंदर, अर्श, अजीर्ण, दृष्टिशूल, मुखरशूल, अरूचि, अक्षिवेदना, खाज, कर्ण-शूल, जलोदर और कोढ।" चिकित्सा के मुख्य चार पाद माने गये हैं:- 1. वैद्य, 2. रोगी, 3. औषधि और 4. प्रतिचर्या करने वाले। इस वृत्ति से शिक्षा एवं विधाओं के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त होती है कि विद्याथी का जीवन सादा था। कितने ही विद्यार्थी अध्यापक के घर पर रहकर पढ़ते थे और कितने ही धनवानों के यहाँ अपने खाने-पीने का प्रबन्ध कर लेते थे। कौशाम्बी नगरी के ब्राह्मण काश्यप पुत्र का पुत्र कपिल श्रावस्ती में पढ़ने के लिए गया, और कलाचार्य के

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