Book Title: Anekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 360
________________ उत्तराध्ययन की सुखबोधा वृत्ति (टीका) का समीक्षात्मक अध्ययन सहयोग से अपने भोजन का प्रबन्ध वहां के धनी शालीभद्र के यहां पर किया। विद्यार्थी का समाज में बहुत सम्मान था। जब कोई विद्याध्ययन समाप्त कर घर जाता तब उसका सार्वजनिक सम्मान किया जाता था। नगर को सजाया जाता था। राजा भी उसके स्वागत के लिए सामने जाता था। उसे बड़े आदर के साथ लाकर इतना उपहार समर्पित करते कि जीवनभर उसे आर्थिक दृष्टि से परेशानी नहीं उठानी पड़ती। बहत्तर कलाओं में शिक्षण का प्रचलन था। समुद्र यात्रा के भी कई वर्णन इस वृत्ति में उपलब्ध है। व्यापारी अपना माल भर कर नौकाओं व जहाजों से दूर दूर देशों में जाते थे। कभी- कभी तूफान आदि के कारण नौका टूट जाती थी और सारा माल पानी में बह जाता था। जहाज के वलय-मुख में प्रविष्ट होने का बहुत भय था। जब व्यापारी दूर देश में व्यापार करने जाते तब उन्हें वहाँ के राजा की अनुमति प्राप्त करनी पड़ती थी। जो माल दूसरे देशों से आता था उसकी जांच करने के लिए व्यक्तियों का एक विशेष समूह होता था।” कर भी वसूल किया जाता था। कर वसूल करने वालों को सूंकपाल (शुल्कपाल) कहा जाता था। व्यापारियों के माल असबाब पर भी कर लगाया जाता था। व्यापारी लोग शुल्क से बचने के लिए अपना माल छिपाते थे। इस वृत्ति से ज्ञात होता है कि तब समाज में कई अपराध होते थे। अपराध में चौर्य-कर्म प्रमुख था। चोरों के अनेक वर्ग इधर-उधर कार्यरत रहते थे। लोगों को चोरों का आतंक हमेशा बना रहता था। चोरों के अनेक प्रकार थे। कितने ही चोर इतने निष्ठुर होते थे कि वे चुराया हुआ माल छिपाने को अपने कुटुम्बीजनों को भी मार देते थे। एक चोर अपना सम्पूर्ण धन एक कुएँ में रखता था। एक दिन उसकी पत्नी ने उसे देख लिया, भेद खुलने के भय से उसने अपनी पत्नी को ही मार दिया। उसका पुत्र चिल्लाया और लोगों ने उसे पकड़ लिया। इस प्रकार अन्य कितने ही तथ्य इस वृत्ति में उपलब्ध है, जो तत्कालीन सांस्कृतिक जीवन को स्पष्ट करते हैं। इस वृत्ति की कई कथाएँ भी बहुत लोकप्रिय हुई है। सगर पुत्र, सनत्कुमार, ब्रह्मदत्त, मूलदेव, मंडित एवं अगडदत्त आदि की कथाएँ बहुत मनोरंजक हैं। इस प्रकार सुखबोधा टीका अत्यन्त सरल, सुबोध एवं मार्मिक है। इसमें भाषा शैली की रोचकता के साथ-साथ कथाओं एवं सांस्कृतिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। इस पर शोधकार्य किया जा रहा है। तभी आमजन के लिए उपयोगी सिद्ध होगी। संदर्भ:1. श्रीवीजयोमांगसूरि द्वारा सम्पादित आत्मवल्लभ ग्रन्थावली वलाद, अहमदाबाद से प्रकाशित सुखबोधवृत्ति। 2. पूर्वोद्धत जिनभासित श्रुत स्थविर सन्दब्धानि। वही पृ.। 3. साध्वी, संघमित्रा, जैन धर्म के प्रभावक आचार्य, पृ. 311 4. विस्तार के लिए देखें, विन्टरनित्स, हिस्ट्री ऑफ इण्डियन लिटरेचर, भाग-2 5. जैन, जगदीशचन्द्र, जैन आगम साहित्य में भारती समाज, पृ. 35

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