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जैनदर्शन में गुणस्थानः एक अनुचिन्तन केवलज्ञानरूपी सूर्य की अविभाग" प्रतिच्छेद रूप किरणों के समूह से अज्ञान अन्धकार सर्वथा नष्ट हो गया है और जिनको नव केवललब्धियों के प्रकट होने से परमात्मा संज्ञा प्राप्त हो जाती है, उन्हें इन्द्रिय की अपेक्षा न होने के कारण और ज्ञान दर्शन प्रकट होने से केवली और मन, वचन, काय रहने के कारण सयोग तथा घातियाकर्मों को जीतने से जिन कहा जाता है। बारहवें गुणस्थान के अन्त तक उन योगी के वेसठ कर्मप्रकृतियों के नष्ट होने से अनन्त चतुष्टय प्राप्त हैं, किन्तु वह योग से युक्त हैं। अतः वह संयोगकेवली अरिहन्त परमात्मा जिन हैं। अयोगकेवली:
जो योग रहित होकर केवली हैं, वे अयोगकेवली कहलाते हैं। जिन योगी के कर्मों के आने के द्वार रूप आस्रव सर्वथा अवरुद्ध हो गये हैं तथा सत्त्व और उदय रूप अवस्था को प्राप्त कर्मरूपी रज के सर्वथा निर्जर हो जाने से कर्मो से सर्वथा मुक्त होने के सम्मुख आ गया है। उस योग रहित केवली को चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगकेवली कहते हैं। इस गुणस्थान में काय और वाक्व्यापार निरूद्ध होने के साथ ही साथ मनोयाग भी पूरी तरह नष्ट हो जाता है। इसी में अघातिया कर्म की उपान्त्य समय में 72 और अन्त समय में 13 कर्म प्रकृति नष्ट हो जाती है। जीव 85 कर्म प्रकृतियों के नष्ट होने पर पूर्ण शुद्धावस्था प्राप्त कर सिद्धात्मा बन अजर अमरता को प्राप्त होते हैं।
गुणस्थानों में आत्मा का विकास होता है किन्तु सर्वथा नहीं है प्रथम गुणस्थानवर्ती मिथ्यादृष्टि पुरुषार्थ पूर्वक कर्मो को हल्का कर पुण्य योग से सम्यग्दर्शन प्राप्त कर चतुर्थगुणस्थान या व्रत सहित होने पर पंचम या सप्तम में पहुंचता है। कदाचित प्रथमोपशम अविरतसम्यग्दृष्टि गिरा तो तीसरे सम्यग्मिथ्यादृष्टि में आकर प्रथम में भी पहुंच जाता है सादि मिथ्यादृष्टि तीसरे से चौथे में भी पहुंचता है। द्वितीयोपशम करके उपशमश्रेणी आरोहण करके पतित भी होता है क्षपकश्रेणी का आरोहण कर सिद्धावस्था को प्राप्त करता है। गुणस्थान संसार दशा के परिणाम ही हैं। सिद्ध भगवान् गुणस्थानातीत होते हैं। संदर्भ:
1. धवल पुस्तका पृष्ठ 163 2. देहादिषु अणुरत्ता विसयासत्ता कसायसंजुता।
अप्पसहावे सुत्ता सम्मपरिचत्ता।। रयणसार 106 3. बहिरात्मा तु प्रथमं मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमेव नातिक्रमते। जैनदर्शनसार पृ. 9
मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने संवरोनास्ति द्रव्य सं0 गाथा 34 की टीका। 5. धवल पु0 1 गाथा 106, पृष्ठ 106 एवं 162 6. आसादनं सम्यक्त्वविराधनं सह आसादनेन वर्तत इति सासादनो
विनाशितसम्यग्दर्शनोऽप्राप्त। मिथ्यात्वकर्मोदयजनितपरिणामो मिथ्यात्वभिमुखः सासादन इति
भण्यते घ0 1/1/10 पृ0 163 7. सम्मत्त्यणपव्वयसिहरादो मिच्छभूमिसमभिमुहो।
णासियसम्मत्तो सो सासणणमो मुणेयव्वो।। धवल 1/1/11/116, पृ0-108 8. ज० ध0 पु0 4 पृष्ठ-24 9. धवल पु04 पृष्ठ-11