Book Title: Anekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 355
________________ अनेकान्त 64/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2011 कहते हैं। जो साधक आत्मशुद्धि की अपेक्षा इस अवस्था में प्रवेश कर जाते हैं उन्हें सूक्ष्मसाम्परायप्रविष्टशुद्धिसंयत कहते हैं। सि.च. नेमिचन्द्र ने कहा है कि जिस प्रकार धुले हुए कौसुंभी रेशमी वस्त्र में सूक्ष्म हल्की लालिमा शेष रह जाती है उसी प्रकार जीव अत्यन्त सूक्ष्म राग अर्थात् लोभकषाय से युक्त होता है, उसको सूक्ष्मसाम्पराय नामक दशम गुणस्थानवर्ती कहते हैं। मोहनीयकर्म का क्षय या उपशम करके आत्मार्थी साधक अन्य समस्त कषायों को नष्टकर देता है और केवल लोभ कषाय का अतिशय सूक्ष्म अंश ही उसके शेष रह जाता है। जो मोहनीयकर्म की 20 प्रकृतियों का क्षय करता हुआ इस गुणस्थान में आया है, वह क्षपकश्रेणी वाला इस गुणस्थान में शेष बचे सूक्ष्म लोभ कषाय की सत्ता व्युच्छित्ति करके 12वें गुणस्थान में चला जाता है और जो नवम गुणस्थान में मोहनीयकर्मप्रकृति का उपशम करके उपशमश्रेणी पर आरूढ़ होकर इस गुणस्थान में आया है वह सूक्ष्म लोभ का उपशम करके उपशान्तकषाय नामक 11वें गुणस्थान में चला जाता है। उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थगुणस्थान (उपशान्तमोह:-) उपशमश्रेणी वाला जीव चारित्रमोह का उपशम कर उपशान्तमोह नामक गुणस्थान को प्राप्त होता है। निर्मली फल से युक्त जल की तरह अथवा शरदऋतु के उपर से स्वच्छ हो जाने वाले सरोवर के जल की तरह मोहनीयकर्म के पूर्ण उपशम से उत्पन्न होने वाले निर्मल परिणामों से युक्त आत्मदशा को उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ नामक 11वाँ गुणस्थान कहा है। इसमें औपशमिक यथाख्यातचारित्र प्रकट होता है। इस गुणस्थान में आरोहण करने वाला साधक मोहनीयकर्म की 28 प्रकृतियों का पूर्ण उपशम करके अन्तर्मुहूंत काल पर्यन्त इस स्थिति में रहकर इस समय सीमा के बाद पुनः उक्त कर्म प्रकृतियों के उदय में आने से निश्चित रूप से नीचे के गुणस्थानों में गिर जाता है उसका गिरना दो प्रकार से होता है। कालक्षय और भवक्षय। जो कालक्षय से गिरता है वह 10-9-8 और सातवें गुणस्थान में क्रम से आता है और जो भवक्षय से गिरता है वह सीधा चौथे में आता है या प्रथम गुणस्थान में भी आ जाता है। क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थगुणस्थान (क्षीणमोह): कषाय (मोह) का पूर्णक्षय होने को क्षीणकषाय या क्षीणमोह कहते हैं। कषाय क्षय से वीतराग होते हैं ज्ञानावरण दर्शनावरण आदि रहते हैं अतः क्षद्मस्थ हैं। जो क्षीणकषाय वीतराग होते हुए छद्मस्थ होते हैं उन्हें क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ कहते हैं। इस गुणस्थान में आया हुआ छद्मस्थ पद अन्त दीपक है अर्थात् आगे छद्मस्थपना नहीं रहेगा। जिस निर्ग्रन्थ का चित्त मोहनीयकर्म के सर्वथा क्षीण हो जाने से स्फटिक के निर्मल पात्र में रखे हुए जल के समान निर्मल हो गया है उसको क्षीणकषाय गुणस्थान कहा गया है। मोहनीयकर्म के न रहने से एक अन्तमुहूर्त में शेष घातिकर्मो का क्षय हो जाता है। अन्तिम क्षण में केवलज्ञान प्राप्त कर 13वें का स्वामी हो जाता है। सयोगकेवली: इस गुणस्थान के अधिष्ठाता अरिहन्त जिनेन्द्र हैं। आचार्य कहते हैं-26 "जिनके

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