Book Title: Anekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 347
________________ अनेकान्त 64/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2011 59 केवल दिग्विरति आदि सात शीलव्रतों के धारण करने वाले श्रावकों को ही नहीं अपितु महाव्रती साधु के भी सल्लेखना होती है। अतः सल्लेखना के लिये सूत्र पृथक करना पड़ा। सूत्रकार ने जब अणुव्रतों और सप्तशीलव्रतों के अतिचारों को बताया तो इसके पूर्व सम्यग्दृष्टि के अतिचारों की चर्चा की। अतः प्रश्न उठता है कि अणुव्रतों के अतिचारों के पूर्व सम्यग्दृष्टि के अतिचार क्यों कहें? इसका समाधान पूज्यपाद ने नहीं किया अपितु वार्तिककार ने किया है। ये सम्यग्दृष्टि के अतिचार अणुव्रती और महाव्रती दोनों के लिये उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि तत्त्वार्थवार्तिक में अणुव्रतों के साथ महाव्रतों की चर्चा पारिशेष न्याय से की है। परन्तु यह स्पष्ट हो जाता है कि जो गृहस्थ अणुव्रत और सप्तशीलों का पालन करता है वह महाव्रतों की शिक्षा के लिये है। अणुव्रतों के पालन के साथ जब तक सप्तशीलों का पालन नहीं करता तब तक महाव्रतों की ओर कदम नहीं बढ़ा सकता है। संदर्भ: 1. तत्त्वार्थसूत्र अ./सू. 1 2. रत्नकरण्डश्रावकाचार परि. 3/रत्ने40 3. सर्वार्थसिद्धि अ. 7/1/342/6 4. तत्त्वार्थवार्तिक अ.7/1/2/3 5. तत्त्वार्थवार्तिक अ./7/20 6. तत्त्वार्थसूत्र अ./7/सू.2 7. चारित्रपाहुड़ गाथा 31 पृष्ठ 90 8. न हिनस्मि, नानृतं वदामि, नादत्त माददे नाड़गनां स्पृशामि न परिग्रहमुवा ददे। त. वा. सूत्र 2/पृष्ठ-535 9. तत्त्वार्थवार्तिक अ. 7/9 10. तत्त्वार्थवार्तिक अ. 7/10 11. तत्त्वार्थवार्तिक आ.7 वार्तिक । 12. अभिनवाऽकुशल कर्मादान निवृत्ति परेण महाव्रत धारिणा क्रियाकलाप प्रणिधातव्यः? (नवीन पापास्त्रवको रोकने में सावधान महाव्रती द्वारा क्या इतना ही क्रिया कलाप धारण करना चाहिये। क्या इतनी ही भावनायें भाने योग्य है?) 13. तत्त्वार्थराज. अ.7/18, 1-8 14. तत्त्वार्थसूत्र 19 वा. 2 15. तत्त्वार्थवार्तिक 7/21 16. वही 7/21 17. तत्त्वार्थश्लोक वा. 7/21/पृष्ठ-604 18. वेश्यापरित्यागिनः दिग्विरत्यादि सप्ततय शीलोपदेशः। वेश्यापरित्यागेन तु श्रावकत्वेनैव गृहिण: सल्लेखनेत्येवमर्थो भेदनेनोपदेशः। - जयपुर (राजस्थान)

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