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अनेकान्त 64/4 अक्टूबर-दिसम्बर 2011
विरक्ति महाव्रत है।
आचार्य अकलंकदेव कहते हैं कि किसी व्यक्ति ने यह प्रतिज्ञा कर ली कि मैं हिसा नहीं करूँगा, झूठ नहीं बोलूँगा इत्यादि प्रतिज्ञा के बावजूद भी वह भावना स्थिर रखने में असमर्थ है तो ऐसी स्थिति में क्या करें? तो स्पष्ट किया है कि उन व्रतों की स्थिरता के लिये प्रत्येक व्रत की पाँच-पाँच भावनाओं को भावे तो व्रतों में स्थिरता आयेगी। जिन पच्चीस भावनाओं का वर्णन तत्त्वार्थ सूत्रकार ने किया है वे भावनायें मुख्यरूप से महाव्रतियों को है क्योंकि कुन्दकुन्द आचार्य ने चारित्रपाहुड में महाव्रत की परिभाषा बताकर इन व्रतों की पाँच-पाँच भावनायें भी गिनायी है । परन्तु तत्त्वार्थसूत्रकार 'देशसर्वतोऽणुमहती' सूत्र कह करके कहते हैं कि इन व्रतों की पाँच-पाँच भावनायें हैं। इस सूत्र से स्पष्ट होता है कि ये भावनायें अणुव्रती और महाव्रती दोनों को मानना चाहिए क्योंकि आचार्य अकलंकदेव ने स्पष्ट कहा है कि कोई पुरुष यह प्रतिज्ञा कर लेता है कि मैं झूठ नहीं बोलूंगा, हिंसा नहीं करूंगा, पर स्त्री गमन नहीं करूंगा इत्यादि । ऐसी भावना स्थिर रखने में असमर्थ है तो ये पाँच-पाँच भावनायें भावे ज्ञातव्य है कि पर स्त्री गमन का त्याग अणुव्रती के होता है। महाव्रती तो स्त्रीभाव के त्यागी हैं। अतः अकलंक ने यह स्पष्ट कर दिया कि ये पाँच-पाँच भावनायें अणुव्रती और महाव्रती दोनों को व्रतों में स्थिरता के लिये भाना चाहिए।
तत्त्वार्थवार्तिक में अकलंक कहते हैं कि इन भावनाओं के सिवा और भी जिन बातों से व्रतों की दृढ़ता रहती है वे हैं व्रतों की विरोधी हो रही पाप क्रियाओं में प्रतिकूल भावनायें भावते हुए सामान्यरूप से सम्पूर्णव्रतों की स्थिरता के लिये और भी इस प्रकार भावनायें करनी चाहिये कि हिंसादि पापों के करने से इस लोक में भी और परलोक में भी अपाय (अनर्थ) और अवद्य ( निन्दा) दर्शन होता है।' इसी प्रकार इनके सिवा हिंसादि के विषय में और भी भावनाएं हैं, वे भी मानी चाहिए जैसा सूत्रकारा कहते हैं कि ये हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह रूप पाप दुःख रूप ही हैं।
हिंसादि पाप दुःख स्वरूप ही है इसको सिद्ध करते हुए कहते हैं कि 'कारण कारणे वा धनप्राणवत'। जैसे धन से अन्न आता और अन्न से प्राणों की स्थिति होती है। अतः कारण के कारण में कार्य का उपचार करके धन को प्राण कहते हैं उसी प्रकार हिंसादि पाप असाता वेदनीय कर्म के कारण है और असाता वेदनीय कर्म दुःख का कारण है। अतः दुःख के कारण के रूप हिंसादि भी दुःख रूप ही है। इस प्रकार आचार्य अकलंकदेव दार्शनिक शैली में हिंसादि को दुःखरूप ही है, सिद्ध करते हैं।"
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आचार्य अकलंकदेव कहते हैं कि जिस प्रकार ये भावनायें भावपूर्वक भाने से व्रत को पूर्णता प्रदान करती है उसी प्रकार इस लोक सम्बन्धी प्रयोजन की नहीं अपेक्षा कर ये मैत्री आदिक भावनायें भी यदि भायी जावें तो व्रत सम्पत्ति स्थिर होती है। प्राणीमात्र में मैत्री, गुणिजनों में प्रमोद, दुःखी जीवों में करूणा तथा विरूद्ध चित्तवालों में माध्यस्थ्यभाव रखना इन चार भावनाओं का विशेषरूप विचार करते हुए व्रती को अपना, आत्मा सर्वदा संस्कारित रखना चाहिये।
महाव्रतियों द्वारा उक्त सभी भावनाओं का चिन्तन करने से नवीन पापास्रव