Book Title: Anekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 335
________________ अनेकान्त 64/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2011 47 में प्रविष्ट हुए वहां स्थित एक शिशु ने उनसे कहा कि हे भगवान् मुनि! यहाँ से शीघ्र जाओ। बालक का यह कथन सुनकर श्रुतकेवली भद्रबाहु ने जान लिया कि यहां बारह वर्ष का दुर्भिक्ष होने वाला है। उन्होंने समस्त संघ से कहा कि इस देश में निश्चित रूप से वर्षा नहीं होगी तथा बारह वर्ष का दुर्भिक्ष पार करना कठिन है। यह शीघ्र ही राजा तथा तस्करों के लूटने से शून्य हो जायेगा। मै यहीं पर ठहरता हूँ; क्योंकि मेरी आयु अब क्षीण हो गई है। आप लवण समुद्र के समीप जायें। भद्रबाहु का वचन सुनकर चन्द्रगुप्त राजा ने इन्हीं योगी के समीप जैनेश्वर तप धारण कर लिया। प्रथम दशपूर्वधारी चन्द्रगुप्त मुनि विशाखाचार्य नाम से समस्त संघ के नायक हो गए। गुरुवाक्य के अनुसार समस्त संघ दक्षिणपथ देश के पुन्नाट नामक विषय की ओर गया। रामिल्ल, स्थूलभद्र एवं भद्राचार्य ये तीनों अपने समुदाय के साथ सिन्धु आदि देश की ओर चले गये। भाद्रपद देश की उज्जयिनी नगरी में भद्रबाहु स्वामी ने चार प्रकार की आराधनाओं की आराधना कर समाधिमरण प्राप्त कर स्वर्गगमन किया। आगे इस कथा में अर्द्धस्फालक संप्रदाय की उत्पत्ति की कथा भी दी गई है। इस कथा से स्पष्ट है कि मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त ही श्रुतकेवली भद्रबाहु की आज्ञा से विशाखाचार्य नाम धारण कर दक्षिण की ओर चले गए थे। दुर्भिक्ष का काल विद्वानों ने ई.पू. 363 से ई.पू.351 के मध्य अनुमानित किया है। हरिषेण परवर्ती ग्रंथकारों ने चन्द्रगुप्त तथा विशाखाचार्य दोनों को भिन्न भिन्न माना है। तिलोयपण्णती (लगभग चौथी शती ई.) के अनुसार मुकुटधारी राजाओं में अंतिम राजा चन्द्रगुप्त ही था, जिन्होंने दीक्षा धारण की। उसके बाद कोई भी मुकुटधारी राजा दीक्षित नहीं हुआ मउडधरेसुं चरिमो जिणदिक्खं धरिदं चंदगुत्तो य। तत्तो मउडधरा दुप्पव्वज्ज णेव गिण्हति॥ ति.प. ४/१४८१ विक्रम सं. 1296 में हुए आचार्य रत्ननन्दी या रत्नकीर्ति कृत भद्रबाहु चरित के अनुसार सोमशर्मा ब्राह्मण और सोमश्री ब्राह्मणी से उत्पन्न बालक भद्रबाहु को गोवर्द्धनाचार्य ने एक के ऊपर एक, इस प्रकार चौदह गोली चढ़ाते हुए देखकर निमित्त ज्ञान से जाना कि यह अंतिम श्रुतकेवली होगा। अत: उसे लेकर उन्होंने समस्त शास्त्र का पारगामी बना दिया। उसने एक बार पद्मधर राजा की सभा में विद्यमान मदोद्धत ब्राह्मणों को वाद-विवाद में पराजित कर दिया। यह देखकर राजा जैन धर्मी हो गया। उसने माता-पिता की आज्ञा से जिनदीक्षा धारण कर ली। एक बार वे उज्जयिनी के सेठ के घर पारणा के लिए गए। उसके घर में एक साठ दिन के बालक ने जाओ! जाओ! ऐसा कहा। बालक के अद्भूत वचन सुनकर मुनिराज ने पूछा- वत्स! कहो कितने वर्ष तक? बालक ने कहा- बारह वर्ष पर्यन्त। बालक के वचन से मुनिराज ने निमित्त ज्ञान से जाना कि मालवदेश में बारह वर्ष पर्यन्त भीषण दुर्भिक्ष पड़ेगा। मुनि महाराज अन्तराय समझकर वापिस वन में चले गए। अपने स्थान पर आकर उन्होंने साधुओं को बारह वर्ष के दुर्भिक्ष की सूचना देकर उस देश को छोड़ने की सलाह दी। श्रावकों की प्रार्थना पर रामल्य, स्थूलाचार्य स्थूलभद्रादि वहीं रह गए। शेष साधु दक्षिण की ओर चले गए। भद्रबाहु स्वामी जब गहन अटवी में पहुंचे तो एक

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