Book Title: Anekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 337
________________ 49 अनेकान्त 64/4 अक्टूबर-दिसम्बर 2011 भद्रबाहु स्वामी संघ को आगे बढ़ने की आज्ञा देकर स्वयं प्रभाचन्द्र नामक शिष्य के साथ कटवप्र पर ठहर गए और वहीं समाधिमरण किया। सम्भवतया चन्द्रगुप्त का दूसरा नाम प्रभाचन्द्र (दीक्षा नाम) रहा हो। पुष्पास्रव कथाकोश में भद्रबाहु का मगध से दक्षिण की ओर जाने का उल्लेख है। हेमाचन्द्राचार्य परिशिष्ट पर्व से भी सिद्ध होता है कि भद्रबाहु के समय बारह वर्ष का दुर्भिक्ष पड़ा था तथा उस भयंकर दुष्काल पड़ने पर ब साधु समुदाय को भिक्षा का अभाव होने लगा तब सब लोग निर्वाह के लिए समुद्र के समीप गाँव में चले गये। इस समय चतुर्दशपूर्वधारी भद्रबाहु स्वामी ने बारह वर्ष के महाप्राण नामक ध्यान की आराधना प्रारम्भ कर दी थी। परिशिष्ट पर्व के अनुसार भद्रबाहु स्वामी इस समय नेपाल की ओर चले गये थे और श्रीसंघ के बुलाने पर भी पाटलिपुत्र को नहीं आए, जिसके कारण श्रीसंघ ने उन्हें संघबाह्य करने की धमकी दी। उक्त ग्रंथ में चन्द्रगुप्त के समाधिपूर्वक मरण करने का भी उल्लेख है । " दि. जैन ग्रन्थों के अनुसार भद्रबाहु का आचार्य पद वीर निर्वाण संवत् 133 से 162 तक 29 वर्ष रहा जो प्रचलित निर्वाण संवत् के अनुसार ई. पू. 394 से 365 तक पड़ता है। इतिहासकार चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्य ई. पूर्व 321 से 398 तक माना जाता है। इस प्रकार भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त के अन्तकाल में 67 वर्ष का अन्तर पड़ता है। " रइधू ने अपने भद्रबाहुचरित में जिस चन्द्रगुप्त के भद्रबाहु से दीक्षित होने की बात कही है उसे चन्द्रगुप्त मौर्य ने मानकर उसके पौत्र अशोक का पौत्र बतलाया है। कुछ विद्वानों ने इसकी पहचान सम्प्रति से की है, किन्तु न तो सम्प्रति का नाम चन्द्रगुप्त था ऐसा कोई प्रमाण मिलता है और न श्रुतकेवली भद्रबाहु से अशोक के पौत्र चन्द्रगुप्त की समकालिकता ही सिद्ध होती है। 20 डॉ. सागरमल जैन ने कहा है कि द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष कहाँ पड़ा, इस सम्बन्ध में मतैक्य नहीं है। हरिषेण देवसेन एवं रत्ननन्दी ने उज्जयिनी में बतलाया तो रइधू ने उसे सिन्धु-सौवीर देश बताया। इसका समाधान यह हो सकता है कि सम्पूर्ण उत्तर भारत दुष्काल की चपेट में था। " भद्रबाहु दक्षिण गए अथवा नहीं, इसके विषय में मतैक्य है, किन्तु प्रायः सभी ने यह माना कि चन्द्रगुप्त ने उनसे जैनदीक्षा ग्रहण की थी। चन्द्रगुप्त जैन था या नहीं। उसके समय में बारह वर्ष का दुर्भिक्ष पड़ा। चन्द्रगुप्त भद्रबाहु से दीक्षित होकर उनके साथ चल पड़ा, इसके विषय में स्मिथ को प्रारम्भ में सन्देह था, किन्तु समत्स प्रमाणों पर पुनर्विचार करने पर तथा कथा के सत्यता के विषय में की गई आपत्तियों पर विचार करने पर स्मिथ साहब इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि यह कथा सम्भवत: मूलतः सत्य है तथा चन्द्रगुप्त ने यथार्थ में राज्य त्यागकर दीक्षा धारण कर ली थी। यद्यपि पारम्परिक कथाओं की बहुत समीक्षा हुई है तथा शिलालेखीय प्रमाण किसी निष्कर्ष पर नही पहुँचाता, फिर भी मेरा वर्तमान विचार ( प्रभाव ) यह है कि इस परम्परा की नींव सुदृढ़ तथ्य पर आधारित है। चन्द्रगुप्त के समय का निर्ग्रन्थ सम्प्रदायः

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