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अनेकान्त 64/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2011 की कृपा करता है तो उसके परिवार हाथों में चांदी के इत्रदान लेकर चलते हैं, वह एक सोने की पालकी में आराम से बैठता है, जिसमें मोती जड़े होते हैं, उसकी झालरें चारों
ओर लटकती रहती हैं। राजा महीन मलमल के कपड़े पहनता है, जिससे सोने के काम किए होते हैं। पालकी के पीछे सशस्त्र सैनिक और उसके अंगरक्षक चलते हैं। इनमें कुछ अपने हाथों में पेड़ों की डालें लिए चलते हैं। इन पर ऐसी चिड़ियाँ बैठी रहती हैं, जिनको अपनी चीख से काम रोकने की ट्रेनिंग मिली रहती है।
राजमहल के खम्भों पर सोने का काम है, जिसमें सोने की अंगूर की बेलें बनी हैं, जिनमें चांदी की चिड़ियां बनाई जाती हैं। ये बड़े नयनाभिराम है। महल के दरवाजे सबके लिए खुले हैं। उस समय भी लोग राजा से मिल सकते हैं, जब वह अपने बाल संवारता और कपड़े पहनता है। उसी वक्त वह राजदूतों से मिलता है और प्रजा को न्याय देता है। इसके बाद उसके जूते उतार दिए जाते हैं, और उसके पैरों में सुगन्धित उबटन की मालिश होती है। छोटी यात्राओ के लिए घोड़े पर चढ़ता है। बड़ी यात्राओं के लिए हाथियों पर बैठता है, जिन पर हौदे कसे होते हैं। इनका सारा शरीर झालरों से ढका होता है, जिन पर सोने का काम होता है। उसके साथ गणिकाओं की एक जमात् चलती है। यह जमात् रानियों के लवाज में से अलग होती है। इनकी नियुक्ति पर बड़ा खर्च होता है। राजा का भोजन औरतें बनाती हैं। चन्द्रगुप्त के विषय में विद्वानों के मतः
ऊपर कहा जा चुका है कि चन्द्रगुप्त मौर्य जैन मुनि हो गया था। डॉ. स्मिथ कहते हैं कि चन्द्रगुप्त मौर्य का घटनापूर्ण राज्यकाल किस प्रकार से समाप्त हुआ, उसकी सीधी और एकमात्र साक्षी जैन दन्तकथा ही है। जैसी इस महान् सम्राट को बिम्बसार जैसा ही जैन मानते हैं और इस मान्यता में अविश्वास करने का कोई भी पर्याप्त कारण नहीं है। परवर्ती शैशुनागों, नन्दों और मौर्यों के काल में जैनधर्म निःसन्देह मगध में अत्यन्त प्रभावशाली रहा था। यह बात कि चन्द्रगुप्त ने एक ब्राह्मण विद्वान् की युक्ति से राज्य पाया था, इस धारणा से कदापि असंगत नहीं कि जैनधर्म तब राजधर्म था। जैन गृहस्थानुष्ठानों में ब्राह्मणों से काम लेते हैं, यह एक सामान्य प्रथा है और मुद्राराक्षस नाटक में मन्त्री राक्षस का विशिष्ट मित्र जैन साधु ही बताया गया है, जिसने पहले नन्द की और बाद में चन्द्रगुप्त की सेवा की थी।
यदि यह तथ्य कि चन्द्रगुप्त जैन था या जैन हो गया था, एक बार स्वीकृत हो जाता है तो उसके राज्य त्यागने एवं अन्त में सल्लेखना व्रत द्वारा मृत्यु का आह्वान करने की दन्तकथा भी सहज विश्वसनीय हो जाती है। यह बात तो निश्चित है कि ई.पूर्व 322 अथवा उसके आसपास जब चन्द्रगुप्त गद्दी पर आया था, तब एकदम युवक और अनुभवहीन था। 24 वर्ष पश्चात् जब उसके राज्यकाल का अन्त हुआ, तब वह 50 वर्ष से कम ही आयु का होना चाहिए। राज्य त्याग कर इतनी कम आया में दूर भाग जाने का
और कोई कारण समझ में नहीं आता है। राजाओं के संसार त्याग के अनेक दृष्टान्त उपस्थित है और बारह वर्ष का दुष्काल भी स्वीकृत किया जाता है। संक्षेप में जैन दन्तकथा जहाँ