Book Title: Anekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 338
________________ मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त मेगस्थनीज के एक वर्णन के अनुसारर निग्रन्थ एक वर्ग के दार्शनिक थे, जो आजीवन नग्न रहते थे और कहते थे कि ईश्वर ने आत्मा के लिए शरीर का आवरण बनाया है। वे न मांस का आहार करते थे, न पकवान का। वे पृथ्वी पर गिरे हुए फलों को खाकर रहते थे। इस वर्णन की अनेक बातें उन वर्णनों से मिलती है, जो निर्ग्रन्थों के विषय में बौद्ध ग्रन्थों में मिलती है। दोनों सिद्धान्तों में बहुत समानता है। वे आत्मा के अस्तित्व को मानते थे, किसी जीव का वध नहीं करते थे यहाँ तक कि वे वनस्पतियों में भी जीवन मानते थे और उन्हें नष्ट नहीं करते थे। वे नग्न साधु थे। जिनको मेगस्थनीज ने नग्न कहा वे निर्ग्रन्थ ही मालूम होते हैं। मेगस्थनीज उन्हें श्रमण नहीं ब्राह्मण कहता है, क्योंकि निर्ग्रन्थ साधु आचार की शुद्धता और धार्मिक विश्वासों में ब्राह्मणों के निकट थे। ये परिव्राजक साधुओं से अपने को भिन्न मानते थे, जो प्रायः निम्न जातियों के होते थे।2।। 21 - Jain Tradition overs that Chandragupta Maurya was a Jain and that when a great twelve years famine accurred, he abdicated, accompanied Bhadrabahu, the last of the saints called Srutakevalies to the south, lived as an ascetic at sharvangola in mysore and ultimately committed suicide by starvation at that place, were his name is still held in rememberance. In the second editon of this book I rejected that tradition and dismised the tale as Imaginery history but on reconsideration of the whole evidence and the objetions urged against the exdibility of the story,. I am now disposed to believe that the tradiion probably is true in its main outline and that Chandragupta realy abdicated and become a Jain ascetic. The traditional at Narratives, of course, like all such relation, are open to much criticism and the epigraphical support is for from conclusive. Nevertheless, my present impression is that the tradion has a solid foundation on fact. चन्द्रगुप्त की शान शौकतः चन्द्रगुप्त के समय नदियों और समुद्र के तटों पर स्थित नगरों के घर लकड़ी के बनाये जाते थे; क्योंकि उन्हें बाढ़ और वर्षा का खतरा था। शानदार स्थानों या ऊँचाई पर बसे घर ईंट और मिट्टी के गारे से बनाए जाते थे। गंगा और सोन के संगम बसा पाटलिपुत्र नगर सबसे बड़ा था। राजा चन्द्रगुप्त के प्रासाद की भव्यता सूसा और एकबतना के प्रासादों की भव्यता को मात करती थी। उसके उद्यानों में पालतू मोर और चकोर रखे जाते थे। उनमें छायादार कुंज और घास के मैदान होते थे, जिनमें खड़े पेड़ की शाखाओं को माली बड़ी कुशलता से एक दूसरे से गूंथ देते थे। पेड़ बराबर हरे और ताजे रखे जाते थे। कुछ पेड़ देशी थे, कुछ बाहर से लाए जाते थे। इन पेड़ों में जैतून का पेड़ शामिल नहीं था। चिड़ियाँ भी थीं, किन्तु उन्हें पिजड़ों में नहीं रखा जाता था। वे अपनी इच्छा से आती थीं और पेड़ों की डालियों पर अपने घोंसले बनाती थी। तोते बड़ी संख्या में रखे जाते थे। वे प्रायः झुण्ड बनाकर राजा के आसपास मडराते रहते थे। प्रासाद के प्रांगण में बड़ी सुन्दर बावड़ियाँ भी बनी थीं, जिनमें बड़ी बड़ी, किन्तु पालतू मछलियाँ रहती थीं। किसी को उन्हें पकड़ने की आज्ञा नहीं थी। राजा और महल के विषय में कर्टियस लिखता है-'राजाओं की ऐश्वर्यशीलता की कोई इंतहा नहीं, वे संसार में बेजोड़ हैं। जब राजा, प्रजा को दर्शन देने

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