Book Title: Anekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 333
________________ अनेकान्त 64/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2011 मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध का सूत्रपात हुआ। सेल्यूकस ने अपने राजदूत मेगस्थनीज को चन्द्रगुप्त के दरबार में भेजा। ये मैत्री सम्बन्ध दोनों के उत्तराधिकारियों के बीच भी बने रहे। चन्द्रगुप्त की शासन व्यवस्था सुदृढ़ थी। उसने नन्दकालीन शासन व्यवस्था का विकास किया। उस समय की शासन व्यवस्था के विषय में कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में प्रकाश डाला है। उसकी राज्य व्यवस्था पर यूनानी प्रभाव भी था। मेगस्थनीज ने उसके कार्यकलापों का विवरण अपनी पुस्तक 'इण्डिका' में लिखा है। अब वह पुस्तक उपलब्ध नहीं है, किन्तु उसके संदर्भो का उपयोग यूनानी लेखकों ने किया है। धार्मिक जीवन चन्द्रगुप्त की धर्म में गहन रूचि थी। उसकी धार्मिक रूचि का कारण संभवतः दार्शनिकों से सम्पर्क था। मेगस्थनीज का कहना है कि भारतीय राजाओं में 'हाइलोविओइ' नाम के दार्शनिकों के पास दूत भेजकर मंत्रणा करने का रिवाज है। ये 'हाईलोविओइ' सर्मनीज (श्रमणाज) के ही एक संप्रदाय के थे, जो वनों में रहते थे औ संयम का जीवन बिताते थे। राजा लोग इनसे सृष्टि के कारण और अन्य बातों पर परामर्श करते थे। देवताओं की पूजा और प्रसन्नता के लिए भी इन दार्शनिकों की सेवायें ली जाती थीं। वर्ष के प्रारंभ में राजा दार्शनिकों का एक महासम्मेलन बुलाते थे, जिसमें ये लोग फसलें, पशु या सार्वजनिक हित की वृद्धि के संबन्ध में लिखित रूप में अपने सुझाव देते थे। यह अनुमान अतर्कपूर्ण नहीं होगा कि यूनानी राजदूत ने पाटलिपुत्र में अपने निवास के समय स्वयं देखकर ये बातें लिखी होंगी। श्रमणों में निग्रंथ (दिगम्बर) साधुओं में ही ये बातें घटित होती है। इन्हें यूनानी लेखकों ने 'जिम्नोसोफिस्ट' भी कहा है, जिसका अर्थ होता है- नग्न दिगम्बर साधु। चन्द्रगुप्त ब्राह्मणों का भी आदर करता था। भारतीय सन्यासियों से यूनानियों की पहली भेंट तक्षशिला में हुई थी। इन सन्यासियों में एक सन्यासी कोलोनस (कल्याण मुनि) भी थे। प्लूटार्क के अनसार टेक्सीलीज के कहने पर तक्षशिला को कोलोनस सिकन्दर से मिलने गये। उसके साथ वे ईरान गए। तेहत्तर वर्ष की अवस्था में जब वे पहली बार अस्वस्थ हुए तो सिकन्दर के अनुनय विनय करने पर भी उन्होंने आत्मदाह कर लिया। संभवत: उन्होंने सल्लेखना व्रत धारण कर समाधि ली हो; क्योंकि जैन परंपरा में आत्मदाह का कोई विधान नहीं है। अवकाश के समय ये लोग बाजारों में समय बिताते थे, उन्हें भोजन मुफ्त मिल जाता था। वे सिकन्दर द्वारा दिए हुए भोज पर आए थे और उन्होंने खड़े-खड़े ही भोजन किया। जैन साधुओं (दिगम्बरों) के 28 मूलगुणों में एक मूल गुण स्थिति भोजन- खड़े-खड़े भोजन लेना आज भी अनिवार्य है। उन्होंने अपनी शारीरिक सहिष्णुता के भी कमाल दिखाए- जैसे सारे दिन धूप में खड़े रहना (इसे जैन परंपरा में आतपन योग कहते हैं) या एक पाँव से खड़े रहना। ओनेसिक्रटस ने लिखा है कि सिकन्दर ने पहले उसे भारतीय सन्यासियों के पास भेजा; क्योंकि उसने यह सुन रखा था कि ये लोग वस्त्रादि धारण नहीं करते और अन्य लोगों का निमंत्रण भी स्वीकार नहीं करते। (ये दोनों बाते आज भी दिगम्बर और जैन साधु पालन करते हैं। तक्षशिला से करीब तीन मील दूरी पर उसे पन्द्रह व्यक्ति अलग अलग

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