Book Title: Anekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 306
________________ कर्मसिद्धान्त के कतिपय तथ्यों का विवेचन-विश्लेषण तरह द्रव्यकर्म की ज्ञानावरण आदि आठ मूल प्रकृतियाँ तथा 148 उत्तर प्रकृतियाँ कर्म प्रतिपादक शास्त्रों में कही गई है। आठ प्रकृतियाँ और उनका स्वभाव-३१ (१) ज्ञानावरण- जो ज्ञान को ढके। इसका स्वभाव देवता के मुख पर वस्त्र जैसा है। वस्त्र देवता विशेष का ज्ञान होने में बाधक है। (२) दर्शनावरण- जो वस्तु को नहीं देखने देवे। जैसे- प्रतिहार-राजद्वार पर बैठा पहरेदार। यह राजा को देखने से रोकता है। इसी तरह दर्शनावरण वस्तु का दर्शन नहीं होने देता। (३) वेदनीय- सुख-दुःख का वेदन (अनभवन) कराता है। इसका स्वभाव शहदलपेटी तलवार की तरह है जिसे चखने पर कुछ सुख मिलता है पर जीभ के कटने से बहुत दु:ख होता है। इसी तरह साता- असाता वेदनीय सुख-दु:ख वेदन कराते हैं। (४) मोहनीय- मोहित/अचेत करना। इसका स्वभाव मदिरा जैसा है। मदिरा शराबी को मदहोश/अचेत कर देती है। उसे अपने स्वरूप का/ अपने का कुछ भी बोध नहीं रहता। इसी प्रकार मोहनीय कर्म आत्मा को मोहित/ बेभान बना देता है जिसे उसे अपने स्वरूप का बोध ही नहीं हो पाता। (५) आयुकर्म- जो किसी पर्याय-विशेष में रोक रखे। इसका स्वभाव लोहे की सांकल या काठ के यंत्र की तरह है। आयुकर्म सांकल या काठ के यंत्र की भांति अपने ही स्थान/पर्याय में रोके रखता है। आयुसमाप्ति के पूर्व अन्य पर्याय में नहीं जाने देता। (६) नामकर्म- नाना तरह के कार्यो को करने वाला। इसका चित्रकार की तरह है। चित्रकार की भांति यह नामकर्म भी नाना रूपों का निर्माण करता है। (७) गोत्रकर्म-ऊँच-नीचपने को प्राप्त कराना। इसका स्वभाव कुंभकार के समान है। जैसे कुम्हार मिट्टी के छोटे-बड़े बर्तन बनाता है वैसे ही गोत्रकर्म ऊँच-नीच गोत्रों में जन्म कराता है। जीव की ऊँच-नीच अवस्था बनाता है। (८) अन्तराय- जो अन्तर/ बाधा या व्यवधान करे। इसका स्वभाव भंडारी (खजांची) की तरह होता है। जैसे भंडारी दूसरे को दानादि देने में विघ्न करता है, वैसे ही यह अन्तरायकर्म दान, लाभ, भोग, उपभोग में बाधा उपस्थित करता है। घाती-अघाती प्रकृतियाँ जीव में दो प्रकार के विकार होते हैं। (1) द्रव्य- प्रदेशविकार और (2) भावविकार। (१) प्रदेशविकार अर्थात् बाह्यसंयोग-वियोग। जैसे जीव का शरीर काला-गोरा, दुबला-पतला या छोटा-बड़ा होना। भावविकार अर्थात् जीव के राग-द्वेष मोह भावों का होना, ज्ञान की हानि-वृद्धि होना। जीव के अंतरंग/ शुद्धभाव मुख्यतः ज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्य हैं। 'घातिया कर्म' जीव के इन्हीं गुणों को प्रकट नहीं होने देते। ये कर्म जीव के भावों को आच्छादित/विकृत करते हैं। इसी से घाती/ घातिया कहलाते हैं। ऊपर कही गई कर्म की 8 मूल प्रकृतियों में से ज्ञानावरण दर्शनावरण मोहनीय और अन्तराय- ये चार घातिया कर्म हैं। ये भी सर्वघाती और देशघाती के भेद से दो प्रकार क हैं। कर्मो की कुल 148 उत्तर प्रकृतियों में से 20 सर्वघाती और 26 देशघाती उत्तर प्रकृतियाँ हैं। (2) जीव के यदि मोह-मिथ्यात्व नहीं है। तो उसके प्रदेशविकारों का (बाह्य संयोग-वियोगरूप द्रव्यविकारों का) उसके शुद्ध स्वभाव पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। जैसे

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