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अनेकान्त 64/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2011
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परिणाम में तानाशाही शासन स्थापित हुआ। जिससे न केवल हिंसा की व्यर्थता सिद्ध हुई अपितु विश्व में लोकतंत्र के प्रति रूझान बढ़ा, क्योंकि लोकतंत्र में लोकहित, लोकशक्ति और लोकसत्ता निहित है, जो अहिंसा के बिना संभव नहीं है। सर्वोदय का सिद्धान्त भी अहिंसा की बुनियाद पर खड़ा है। ३. जैनाचार्य अमृतचन्द्र और अहिंसा की अवधारणा
1. हिंसा और अहिंसा के विश्लेषण में अमृतचन्द्राचार्य ऐसे प्रथम आचार्य हैं, जिन्होंने इसकी विस्तृत व्याख्या पुरुषार्थसिद्धयुपाय में की, जहाँ उनके चिन्तन में मनोविज्ञान एवं अध्यात्म का सहज समवाय है।
जैन धर्म में पाँच पाप माने गये हैं- हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह। लेकिन उनका मानना है कि यथार्थ में कोई पाप है तो हिंसा ही है। उस हिंसा से बचने के लिए ही आगम में शेष चार पापों की चर्चा की है। किसी के द्रव्य का हरण करना या चाहे हिसी हेतु से चोरी की हो, वह हिंसा है। सत्य व प्रिय वाणी यदि वीणा की भांति सुखकर लगती है जो असत्य/झूठ वचन वाण की भांति दुःखदायी होने से हिंसा ही है। एकबार के अब्रह्म सेवन में नवकोटि जीवों की हिंसा होती है। इसी प्रकार भले ही पुण्य से विभूति व सुखसमृद्धि का योग होता है, परन्तु परिग्रही पापार्जन ही करता है, क्योंकि वह शोषण और अनाचार का पोषक होने से हिंसा की श्रेणी में आता है।
2. अमृतचन्द्राचार्य ने कषाय भाव से परिमित हुए, मन वाणी और काय के योग से द्रव्य (भौतिक रूप से) एवं भाव दोनों प्रकार से जीव के प्राणों का घात करना हिंसा कही है। उन्होंने राग भाव को हिंसा और उसके अभाव को अहिंसा के दायरे में रखकर कहा
यत्खलु कषाययोगात्प्राणानां द्रव्यभावरूपाणाम्। व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा ॥४३॥
तथा
अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति। तेषामेवोत्पत्तिर्हिसेति जिनागमस्य संक्षेपः॥४४॥
3. अमृतचन्द्राचार्य ने अहिंसा को जीवन का परम रसायन निरूपित किया है। वे कहते हैं कि इन्द्रियों के विषयों का न्यायपूर्वक सेवन करने वाले श्रावकों को अल्प व अपरिहार्य एकेन्द्रिय घात के अलावा शेष स्थावर जीवों को मारने का भी त्याग करने योग्य है, क्योंकि अहिंसारूपी रसायन मोक्ष का कारणभूत परम रसायन है। ४. हिंसा के विविध समीकरण आचार्य अमृतचन्द्र की दृष्टि में___1. स्वामी अमृताचन्द्राचार्य जीव की स्वपरिणति से हिंसा व अहिंसा का विधान निश्चित करते हैं। एक जीव हिंसा नहीं करके भी हिंसा के फल का पात्र होता है, जबकि दूसरा हिंसा करके भी हिंसा के फल का पात्र नहीं होता। उदाहरणार्थ- दो भाईयों में एक सबल है और दूसरा कमजोर। कमजोर भाई बैठा-बैठा ऐसे खोटे भाव करता रहता है कि मैं इसे किसी कीमत पर नहीं छोडूंगा। उसने अपने हाथों से सबल भाई की हिंसा नहीं की, परन्तु