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अनेकान्त 64/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2011
अहिंसा परमोधर्मः अहिंसा परमो तपः। अहिंसा परमं सत्यं यतो धर्मः प्रवर्तते॥ अहिंसा परमो यज्ञः अहिंसा परमो फलम्।
अहिंसा परमं मित्रमहिंसा परमं सुखम्॥२० महाभारत के शान्ति पर्व में बड़ी महत्वपूर्ण बात कही गई है:
अहिंसा धर्म संयुक्ताः प्रचरेयुः सुरोत्तमाः
स वो देश: सेवितव्यो, मा वो धर्मः पदास्पृश्यते। अर्थात् अहिंसा धर्म का पालन जिस क्षेत्र में होता हो, वहीं व्यक्ति को निवास करना चाहिए।
यदि विश्व के सभी राष्ट्र शान्ति और सौहार्द को पाना चाहते हैं, तो उन्हें अहिंसा की प्रतिष्ठा का मापदण्ड अपनाकर परस्पर सहयोग और सहअस्तित्व की मूलधारा से जुड़ना होगा। विज्ञान की आण्विक भट्टियाँ शान्ति की जय यात्राओं का मंगलघोष कर सकती हैं यदि विज्ञान का नजरिया अहिंसा की मानवतावादी दृष्टि से जुड़ जाए। पूरी मनुष्य जाति को एक मंच पर आकर संवेदना का पक्षधर बनाना होगा। आज अभिनव विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में अभिनव अहिंसा की तलाश शुरू हो जाना चाहिए तभी व्यक्ति के व्यक्तित्व को एक रचनात्मक दिशा मिल सकेगा। कब वह सुनहरा भविष्य दस्तक देगा जब जैनाचार्यों द्वारा प्रतिपादित अहिंसा का स्वरूप विज्ञान की पोथी में रेखांकित हो सकेगा? उस कल की प्रतीक्षा में हम आशान्वित हैं। संदर्भ: 1. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, आचार्य अमृतचन्द्र, 43, 44 एवं
स्तोकैकेन्द्रियघाताद्गृहिणां सम्पन्नयोग्य विषयाणाम्। शेष स्थावर मारण विरमणमयि भवति करणीयम्।।78।। अमृतत्व हेतु भूतं परमहिंसा रसायन लब्धावा। अवलोक्य बालिशानाम् समन्जसमाकुलैर्न भवितव्यम्। (78) पुरुषार्थसिद्धयुपाय अविधायापि हि हिंसा हिंसाफल भाजनं भवत्येकः।
कृत्वाप्यपरो हिंसा हिंसाफल भाजनं न स्यात्।।51।। 3. वही। एकस्याल्पा हिंसा ददाति काले फलमनल्पम्।
अन्यस्य महाहिंसा स्वल्पफला भवति परिपाके।।52।। वही। प्रागेव फलति हिंसा क्रियमाणा फलति फलतिव कृतापि। आरभ्य कतुमकृतड्पि फलति हिंसानुभावेन।।54।। वही। एक: करोति हिंसा भवन्ति फलभागिनों बहवः। बहवो विदधति हिंसा फलभुग भवत्येक:।।5511 कस्यापि दिशति हिंसा हिंसाफलमेकमेव फलकाले। अन्यस्य सैव हिंसा दिशत्यहिंसाफलं विपुलम्।।56।। संकल्पात् कृतकारितमननाद्योगं त्रयस्य चरसत्वान्। न हिनस्तिं यत्तदाहुः स्थूलवधा द्विरमणं निपुणाः।।53।। रत्नकरण्ड श्रावकाचार।