Book Title: Anekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 328
________________ जैन विद्या में अनुशासन करना प्राणी संयम है। इन दोनों संयम में इन्द्रिय संयम मुख्य है क्योंकि इन्द्रिय संयम प्राणी संयम का कारण है। इन्द्रिय संयम होने पर ही प्राणी संयम होता है, बिना इन्द्रिय संयम के प्राणी संयम नहीं हो सकता। इन्द्रिय संयम का अर्थ है पांचों इन्द्रियों के विषयों में मन को न जाने देना और प्राणी संयम का अर्थ है, हिंसात्मक प्रवृत्ति से दूर रहना। मन को नियंत्रित करना क्योंकि सबसे अधिक हिंसा मन के द्वारा होती है। मन में तरह-तरह के दुर्विचार आते हैं। उसके बाद वचनों से हिंसा होती है और सबसे कम हिंसा काय से होती है। इन्द्रिय का निरोध करना ही संयम है। "वदसमिदिकसायाणां दंडाणं इंदियाण पंचण्हं। धारण पालणणिग्गह-चाय-जओ संजमो भणियो।' पांचों महाव्रतों का धारण करना, पांच समितियों का पालन करना, चार कषायों का निग्रह करना, मन वचन काय रूप तीन दण्डों का त्याग करना और पांचों इन्द्रियों को जीतना संयम कहा गया है। संयम का बंधन है स्वतंत्रता के लिये। अगर हम संसार से मुक्त होना चाहते हैं तो संयम के बंधन में तो बंधना ही होगा यह एक ऐसा बंधन है जो मनुष्य को स्वच्छन्द से बचाता है। आत्मा को शरीर स्वतंत्र करता किन्तु आज हम शरीर से स्वतंत्र नहीं शरीर से स्वच्छन्द होना चाहते हैं। शरीर की स्वच्छन्दता दु:ख का कारण है और शरीर की स्वतंत्रता परम सुख का कारण है। महावीर ने बंधनों की मुक्ति के लिये संयम को धारण किया वे महान इन्द्रियों के विषय से पराड़मुख थे। अल्पभाषी होकर विचरण करते थे। कभी शिशिर ऋतु में छाया में ध्यान करते थे। ग्रीष्म ऋतु में तापाभिमुख होकर उत्कृष्ट आसन से बैठते और आतापना लेते थे। जुलाब, वमन, शरीर पर तेल मर्दन करना, स्नान करना, हाथ-पैर आदि दबवाना और दांत साफ करना आदि क्रियाएं शरीर को अशुचि जानकर वे नहीं करते थे।' उत्तराध्यन सूत्र में अनुशासन के लिए भगवान महावीर ने कहा है मेरे द्वारा संयम और तप से आत्मा का दमन हो, यही श्रेष्ठ है। दूसरों के द्वारा बन्धन और बध से मैं दबाया जाउं, यह ठीक नहीं। लोगों के समक्ष अथवा अकेले में वचन या कर्म से कभी भी प्रबुद्ध लोगों के प्रतिकूल आचरण न करें। आज्ञा को न मानने वाले और अंट-संट बोलने वाले कुशील शिष्य कोमल स्वभाव वाले गुरू को भी क्रोधी बना देते हैं। गुरू की इच्छानुसार चलने वाले और शीघ्र पटुता को प्राप्त करने वाले शिष्य दुष्ट अभिप्राय वाले क्रोधित होने वाले गुरू को भी प्रसन्न कर लेते बिना पूछे कुछ भी न बोले अथवा पूछने पर असत्य न बोले। क्रोध को असत्य विफल कर दे तथा प्रिय और अप्रिय को समान रूप से धारण करे। आत्मा का ही दमन (संयम) करना चाहिए। आत्मा ही दुर्दुम है। दमित आत्मा ही इहलोक और परलोक में सुखी होता है।'

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