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जैनाचार्यों द्वारा प्रतिपादित अहिंसा एवं विश्वशान्ति कलुषित भावों के कारण वह हिंसा के पाप का भागी होता है। ईर्यापथ से विवेकपूर्ण मार्ग में जाते हुए एक व्यक्ति के पैर तले अचानक एक छोटे जीव की मृत्यु हो जाती है, फिर भी वह हिंसा पाप का बंध नहीं करता, क्योंकि उसके वध करने के परिणाम नहीं थे। २. परिणामों की तीव्रता या मंदता के कारण हिंसा का फल भोगना
आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं, एक जीव तीव्र परिणामों में यदि थोड़ी हिंसा भी करता है तो उदयकाल में उसे बहुत फल भोगना पड़ता है, जबकि दूसरा बड़ी हिंसा करके भी थोड़ा फल पाता है। डॉक्टर द्वारा शल्य क्रिया करते, रोगी मर जाता है, परन्तु जीवन सुरक्षा के लिए शल्य क्रिया करते हुए डॉक्टर को अल्पदोष ही लगता है। ड्रायवर द्वारा अप्रत्याशित रूप से दुर्घटना के कारण बहुत लोगों की मृत्यु हो जाती है फिर भी उसे अल्प हिंसा का दोष लगता है। ३. कषाय भावों के अनुसार हिंसा का फल
कोई हिंसा पहले ही फल देती है, कोई करते करते फलती है और कोई हिंसा कर चुकने पर फलती है। हिंसा करने का आरंभ करके, न करने पर भी फल देती है। आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं कि कषाय भावों के अनुसार ही हिंसा का फल प्राप्त होता है।' ४. करे एक भोगे अनेक, करे अनेक भोगे एक
क्रूरता पूर्वक पशु-पक्षियों के खेल प्रदर्शन करने वाला एक व्यक्ति होता है, परन्तु हजारों दर्शकों को हिंसा पाप का भागी होना पड़ता है। इसी प्रकार दो देशों के बीच युद्ध में, दोनों ओर के अनेक सैनिक हताहत होने पर उन्हें हिंसा का फल नहीं भोगना पड़ता। वे वेतनभोगी होते हैं और युद्ध करवाने वाले के आदेश पर शस्त्र संचालित करते हैं। अतः युद्ध करवाने वाला प्रमुख राजा या सेनाधिकारी को उसका फल भोगना पड़ता है।' ५. समन्तभद्राचार्य और अहिंसा
___ आचार्य समन्तभद्र का मानना है कि अहिंसा केवल दर्शन मात्र नहीं है। यह आचारगत ऐसा वैशिष्टय है, जो तुरन्त दिखाई दे जाता है। वास्तव में समन्तभद्रस्वामी ने जो पहचान व पैठ बनाई वह उनकी अमरकृति 'रत्नकरण्डश्रावकाचार' के रूप में विश्रुत है। यह श्रावकों की आचार संहिता है। समन्तभद्रस्वामी ने श्रावकों के लिए अहिंसाणुव्रत को धारण करने की बात कही। आचार्य श्री कहते हैं कि मन, वचन और काय के योग से संकल्प पूर्वक त्रस जीवों का अर्थात् द्विइन्द्रिय से पंचेन्द्रिय जीवों का वध न खुद करना, न किसी से कराना और न वध का अनुमोदन करना, स्थूल हिंसा से विरत होना है। यही अहिंसाणुव्रत है। इसके क्रमशः पाँच अतिचार (विक्षेप/व्यतिक्रम) है। किसी मनुष्य या पशु-पक्षी को छेदना, बांधना, पीड़ा देना, क्षमता से अधिक भार लादना और आहार देने में कमी रखना, ये हिंसा के ही रूपान्तरण हैं। इसी प्रकार शेष चार अणुव्रतों का धारी श्रावक, अवधिज्ञान, अणिमा आदि आठ ऋद्धियों का धारी होकर दिव्य शरीर के साथ सुरलोक को प्राप्त करता है। सर्वप्रथम सर्वोदयतीर्थ (अहिंसा) की उद्घोषणा करने वाले महान मानवतावादी दार्शनिक कवि समन्तभद्रस्वामी थे, जिनका नाम निर्ग्रन्थ आचार्य कुन्दकुन्द और उमास्वामी के समकक्ष प्रमुख आचार्यों में लिया जाता है।