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अनेकान्त 64/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2011
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अरिहन्त अवस्था में अघातिया कर्मों के रहते हुए भी उनके ज्ञानादि गुणों का घात नहीं होता, जीव के रागद्वेषात्मक भाव नहीं होते, स्वाभाविक गुणों का घात नहीं होता। इसीलिए ये अघातिया कहे जाते हैं। वेदनीय, आयु नाम और गोत्र- ये चार अघातिया कर्म हैं। प्रशस्त (पुण्यरूप) और अप्रशस्त (पापरूप) के भेद से ये भी दो प्रकार के हैं। प्रशस्त प्रकृतियों की संख्या भेदविवक्षा से 68 और अभेदविवक्षा से 42 हैं। अप्रशस्त प्रकृतियों की संख्या भेदविवक्षा से बंधयोग 82 और उदययोग्य 84 प्रकृतियां हैं। 5 वर्ण 5 रस 2 गंध और 8 स्पर्श- ये 20 प्रकृतियां प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों रूप होती हैं। अतः इनकी गणना दोनों में होती है।
वेदनीय को अघातिया कर्मों में गिनाया है परन्तु यह सर्वथा अघातिया नहीं है। मोहनीय के सदभाव में यह सुख-दुःख का तीव्र वेदन कराती है। अतः वेदनीय अघातिया मूल प्रकृति होते हुए भी घातीवत् मानी गई है। यह मोही जीवों को ही सुख-दुःख को वेदन कराती है, निर्मोही वीतरागियों को नहीं।
(ख) स्थितिबन्ध- जीव के रागादि भावों के निमित्त से कार्मण-वर्गणाओं का ज्ञानावरणादि आठ मूल प्रकृतियों के रूप में परिणमन हो जाने के बाद जितनी अवधि तक वह जीव के आत्मप्रदशों के साथ बद्धरूप से टिकी रहे उतना काल उस बन्ध की स्थिति कहलाती है अर्थात् बद्ध कर्म में स्थिति (कालावधि) का निश्चित होना "स्थितिबन्ध" कहलाता है। जघन्य स्थिति से लेकर उत्कृष्ट स्थिति तक इसके अनेक भेद हैं। सबसे जघन्य स्थिति अन्तर्मुहुर्त है और उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर की है।
प्रत्येक कर्मप्रकृति की जघन्य उत्कृष्ट अथवा मध्यम बन्ध स्थिति अवश्य होती है। दर्शनमोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति 70 कोडाकोड़ी सागर है। आठों कर्मों की स्थिति में यह सर्वोत्कृष्ट हैं। चारित्र मोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति चालीस कोड़ाकोड़ी सागर है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति 30 कोड़ाकोड़ी सागर है। नाम और गोत्र कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति 20 कोड़ाकोड़ी सागर है। आयुकर्म की उत्कृष्ट स्थिति 33 सागर मात्र है। वेदनीय की जघन्य स्थिति 12 मुहुर्त, नाम-गोत्रकर्मों की जघन्य स्थिति 8 मुहुर्त तथा शेष सभी कर्मों की जघन्य स्थिति, अन्तमुहूर्त है।
बन्ध-सत्त्व-उदय-निर्जरा- बद्धकर्मविशेष बन्धस्थिति से लेकर जितने काल तक बिना फल दिए बेकार सा पड़ा रहता है, इसे "कर्म की सत्ता" कहा जाता है। परन्तु बन्धस्थिति काल पूरा होने पर जब वह कर्म फलोन्मुख होता है, जीव के भावों पर अपना प्रभाव डालने के लिए तत्पर होता है, तो यह उसका --परिपाक या उदयकाल" कहलाता है। स्थितिकाल का अन्तिम क्षण ही वस्तुतः "उदयकाल" है, क्योंकि उस क्षण में वह फल देकर उत्तरवर्ती क्षण में ही आत्मप्रदेशों से छूटकर पुनः कार्मण-वर्गणाओं में मिल जाता है। इसे ही "कर्म-निर्जरा" कहा जाता है।"
निषेक रचना- समय-समय पर जो कर्म खिरै/ निर्जीर्ण हों, उनके समूह को "निषेक" कहते हैं। कर्मों की स्थिति में निषेकों की रचना होती है। किसी एक समय में बंधा हुआ कर्म-वर्गणाओं का एक पिण्ड “एक समय प्रबद्ध" कहलाता है। इसमें आठों