Book Title: Anekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 308
________________ 20 कर्मसिद्धान्त के कतिपय तथ्यों का विवेचन-विश्लेषण कर्म प्रकृतियों के कार्मण-स्कन्ध शामिल रहते हैं। प्रत्येक प्रकृति के स्कन्ध में अनन्तों कार्मण-वर्गणाएं होती हैं; जो समान स्थिति वाली नहीं होतीं। कुछ की स्थिति सबसे कम होती है, कुछ की अधिक और कुछ की उससे भी अधिक होती है। इस क्रमानुसार अन्तिम कुछ वर्गणाओं की स्थिति सबसे अधिक होती है। यही उस विवक्षित कर्म की सामान्यस्थिति कही जाती है। कर्मविशेष की विवक्षित स्थिति के समयों को ईंटों की भांति नीचे ऊपर क्रम से स्थापित करके एक समयप्रबद्ध की एक-एक प्रकृति के द्रव्य को वर्गणाओं में विभाजित कर उन क्रमबद्ध समयों पर नीचे से ऊपर की ओर स्थापित करें। सबसे अधिक वर्गणाएं स्थितिकाल के सबसे निचले प्रथम समय पर रखें। उनसे कुछ कम वर्गणाएं उसके ऊपर दूसरे समय पर स्थापित करें। उससे कम तीसरे समय पर रखें। इस प्रकार हानिक्रम से प्रत्येक समय पर कुछ-कुछ कम वर्गणाएं रखते जाएँ। सबसे ऊपर अन्तिम समय पर सबसे कम अन्तिम शेष भाग रखकर उस विवक्षित द्रव्य को समाप्त करें। इस प्रकार एक-एक समय पर स्थापित वर्गणाओं का पिंड ही उस उस समय का निषेक होता है। 38 उदय- सत्तारूप से निश्चेष्ट पड़ा कर्म जब फलोन्मुख होता है तब वह 'उदय में आया" कहा जाता है, परन्तु उदयोन्मुख होने पर भी नींद से उठे व्यक्ति की खुमारी की तरह वह कर्म कुछ काल तक फल देने में समर्थ नहीं हो पाता। उतने काल को 44 'आबाधाकाल" कहा जाता है। 39 एक समयप्रबद्ध का सारा द्रव्य एक ही बार फल देकर नहीं खिरता, अपितु उपर्युक्त निषेक रचना के अनुसार प्रतिसमय क्रम से एक-एक निषेक उदय में आकर फल देकर खिरता है। इस क्रम से खिरते हुए अन्तिम समय पर स्थित अन्तिम निषेक उदय में आकर झड़ जाता है। इस प्रकार खिरते हुए, जितने समयों में कुल द्रव्य खिर जाता है, वह उस विवक्षित कर्म की "सामान्यस्थिति" कही जाती है तथा जितने जितने काल के पश्चात् जो-जो निषेक खिरता है उतने उतने कालप्रमाण उस निषेक की "विशेष स्थिति" कहलाती है। यह विशेष स्थिति एक विवक्षित निषेक की अपेक्षा कवेल एक सूक्ष्म समयप्रमाण होती है। उदयागत निषेक के अलावा आगामी समयों पर स्थित निषेक "सत्तागत निषेक" कहलाते हैं। उदय में आने पर ही ये अपना अच्छा या बुरा फल देते हैं। (ग) अनुभाग बन्ध- 'विपाकोऽनुभव:'-8 / 21 त सूत्र । बद्धकर्म का परिपाक होना, उसमें फलदान शक्ति का पड़ना " अनुभागबन्ध" है। कर्म की फलदान शक्ति की तरन्तमता का नाम अनुभाग है, जो भावात्मक होता है। इसलिए इसका माप " अविभागप्रतिच्छेद" से किया जाता है। आज की भाषा में इसे "डिग्री" कह सकते हैं। ताप का माप 'डिग्री' में किया जाता है। 'शक्ति- अंश' या 'भावानात्मक यूनिट" का नाम " अविभाग प्रतिच्छेद" है। 44 प्रकृति और अनुभाग में अन्तर प्रकृति कर्म के स्वभाव को बतलाती है जबकि अनुभाग कर्म की तीव्र या मन्द फलदान शक्ति (रस) को कहा जाता है। प्रकृति सामान्य है और अनुभाग उसका विशेष है। जैसे आम की प्रकृति सामान्यतः उसकी मिठास है,

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