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अनेकान्त 64/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2011
परन्तु वह कितना मीठा है? कम या अधिक? यह उसका अनुभाग है। इसी प्रकार दूध भी सभी समान प्रकृतिवाले होते हैं, परन्तु भैंस के दूध में गाय की अपेक्षा ज्यादा चिकनाहट होती है और बकरी के दूध में गाय के दूध से भी कम होती है। इसी तरह बद्ध कर्म में फलदान शक्ति की तरत्तमता का नाम अनुभाग है।
राग-द्वेषात्मक भावकर्म की तीव्रता और मन्दता के अनुसार ही कर्मों में फलदान की शक्ति पड़ती है। अधिक तीव्रता वाले भावकर्म से अधिक अनुभाग वाले द्रव्यकर्म का बन्ध होता है और हीन या मन्द कषाय वाले भावकर्म से हीन अनुभाग युक्त द्रव्यकर्म का बन्ध होता है। यह अनुभाग बन्ध ही जीव के गुणों के विकास में बाधक है, प्रकृति बाधक नहीं होती है।
घातिया कर्मों की फलदानशक्ति लता, काठ, हड्डी और पत्थर के समान है। इनमें जैसा क्रम से अधिक-अधिक कठोरपना है, वैसा ही इन कर्मों के अनुभाग में होता है। दारुभाग के अनन्तवें भाग तक शक्तिरूप स्पर्द्धक सर्वघाती है। इनके उदय होने पर आत्मा के गुण प्रकट नहीं होते।
अघातिया कर्मों में प्रशस्त प्रकृतियों के शक्ति भेद गुड़, खांड, मिश्री और अमृत के समान उत्तरोत्तर मीठापन लिए हुए हैं। अप्रशस्त प्रकृतियों के शक्तिभेद नीम, कांजीर विष और हालाहल के समान जानना चाहिए अर्थात् सांसारिक सुख-दुःख की कारण भूत दोनों ही पुण्य और पापकर्म-प्रकृतियों की शक्तियों को चार-चार तरह से तरन्तम रूप से समझना चाहिए।
(घ) प्रदेशबन्ध-बद्ध कर्मस्कन्ध में स्थित परमाणुओं की संख्या “प्रदेशबन्ध" है। द्रव्यकर्म की प्रत्येक प्रकृति में जिसने कर्मपरमाणु बंध को प्राप्त होते हैं, उन्हें उस कर्मप्रकृति का 'प्रदेशबन्ध' कहते हैं। एक समय प्रबद्ध की तो बात ही क्या है, एक निषेक में भी अनन्तानन्द प्रदेश होते हैं। आ. श्री उमास्वामी ने कहा है कि प्रति समय योग विशेष से कर्मप्रकृतियों के कारणभूत एकक्षेत्रावगाहीरूप से स्थित सूक्ष्म अनन्तानन्त पुद्गल परमाणु सब ओर से आत्म प्रदेशों में संबन्ध हो प्राप्त होते हैं। यहाँ यह विशेष ज्ञातव्य है कि प्रदेश बंध से जीव को कोई हानि या लाभ नहीं होता, क्योंकि कम प्रदेश हों या अधिक प्रदेश हों, फल तो तीव्र या मन्द अनुभाग का ही होता है, प्रदेश संख्या का नहीं।
समयप्रबद्ध का ८ कर्मप्रकृतियों में बंटवारा- एक समय में ग्रहण किया हुआ समय प्रबद्ध आठ मूल प्रकृतिरूप परिणमता है। सभी मूल प्रकृतियों में आयुकर्म का हिस्सा सबसे थोड़ा है। नामकर्म और गोत्रकर्म का भाग आपस में बराबर होता है, पर आयुकर्म से अधिक होता है। अन्तराय, दर्शनावरण और ज्ञानावरण का भाग भी आपस में समान है, तो भी नामकर्म, और गोत्रकर्म से अधिक है। इससे भी अधिक मोहनीय कर्म का हिस्सा है तथा मोहनीय से भी अधिक भाग वेदनीय कर्म का रहता है। चूंकि वेदनीय कर्म सुख-दुःख का कारण है। इसलिए इसकी निर्जरा भी अधिक होती है। इसी से द्रव्यकर्म का सबसे अधिक भाग इसवेदनीय कर्म के खाते में जाता है। बाकी सब मूल प्रकृतियों के द्रव्य का स्थिति के अनुसार बटवारा होता है। जिसकी स्थिति अधिक होती है, उसे