Book Title: Anekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 310
________________ कर्मसिद्धान्त के कतिपय तथ्यों का विवेचन-विश्लेषण अधिक हिस्सा जाता है, कम स्थिति को कम तथा समान स्थिति वाले को समान हिस्सा मिलता है। उपर्युक्त चारों में से प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध जीव के योगों द्वारा होते हैं तथा स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध कषायरंजित उपयोग द्वारा होते हैं। इन चारों में स्थितबन्ध और अनुभागबन्ध ही घातक है। इन्हें रोकने के लिए आत्म हितैषियों को सतत सावधान रहना चाहिए। सभी कार्य स्वभाव से ही निष्पन्न होते हैं- कर्मबन्ध के कार्य/द्रव्यबन्ध के बंध उदय आदि कार्य सहज स्वभाव से ही निमित्त-नैमित्तिक भाव के द्वारा निष्पन्न होते रहते हैं। इनका कोई संचालक, दिशानिर्देशक या नियंत्रणकर्ता नहीं है। संसार के सारे क्रियाकलाप अपने आप इसी कर्मसिद्धान्त के अनुसार संचालित होते रहते हैं। इन कार्यों के निष्पादन में किसी भी नियन्ता की आवश्यकता नहीं होती। जब तक द्रव्यकर्म और भावकर्म का निमित्त-नैमित्तिक संबन्ध रहेगा, तब तक संसार इसी भांति चलता रहेगा। भावों की शुद्धिपूर्वक साधनारत रहकर संसार-भ्रमण का अन्त किया जा सकता है। स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध की मुख्यता- उपर्युक्त चारों बन्धों में स्थिति और अनुभागबन्ध ही हानिप्रद और बाधक हैं, प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध नहीं, क्योंकि कम अनुभाग वाले अधिक प्रदेशों का उदय जीव को थोड़ी ही बाधा पहुंचाता है, जबकि अधिक अनुभाग वाले थोड़े भी प्रदेशों का उदय अधिक हानि पहुंचा सकता है। जैसे खौलते हुए जल की एक कटोरी ही देह में फोड़े और जलन पैदा कर देती है, जबकि कम गरम जल की एक बाल्टी भी व्यक्ति को कोई हानि नहीं पहुँचाती। अतः कर्मसिद्धान्त में सर्वत्र स्थिति और अनुभाग के बन्ध, उदय, उत्कर्षण आदि ही मुख्य हैं, प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध नहीं। कर्मबन्ध के मुख्य दो कारण- (1) योग और (2) कषाय से ही कर्म आकृष्ट होकर जीव के साथ बंधते हैं। योगों-मन-वचन-काय की हलनचलन रूप क्रिया से कार्मण वर्गणा जीव की ओर आकृष्ट होती हैं, और कषाय से ये आत्मप्रदेशों के साथ एक क्षेत्रावगाहरूप सम्बन्ध को प्राप्त हो जाती हैं। आगे चलकर ये ही उदय में आकर अपना फल देती हैं। जीवात्मा को स्वच्छ दीवाल, कषायों को गोंद और योग को वायु मान लें तो कर्मबन्ध की प्रक्रिया सरलता से बोधगम्य हो जाती है। योग की आँधी से उड़कर आयी हुई कर्मरूपी धूल कषायरूपी गोंद से अनुरंजित जीव की आत्मप्रदेशरूपी दीवाल पर चिपक जाती है। कषायरूपी गोंद की पकड़ जितनी सबल या निर्बल (तीव्र या मन्द) होगी, बंध भी उतना ही प्रगाढ़ या शिथिल होगा। अस्तु जीव यदि कषायभाव न करे तो योगों से कर्मों का आगमन भले ही होता रहे, परन्तु वे आत्मप्रदेशों से चिपकेंगे नहीं; क्योंकि कषाय के अभाव में आत्मप्रदेश स्वच्छ, सूखी दीवाल की भांति रहेंगे। अतः कर्म आकर उनसे चिपकेंगे नहीं, सूखे-कषायरहित आत्मप्रदेशों से लगकर तुरन्त खिर/गिर जायेंगे। सकषायी जीवों के ही कर्मबन्ध होता है, अकषायी-वीतरागी जीवों के नहीं। अरिहन्त दशा में योग के सद्भाव

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