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अनेकान्त 64/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2011 के आत्मप्रदेशों पर स्थित जो विनसोपचयरूप पुद्गल हैं, वे ही कर्मरूप से परिणत होते हैं। कर्म कहीं बाहर से आकर नहीं बँधते हैं। जीव के प्रदेशों के साथ बँधे कर्म और नोकर्म के प्रत्येक परमाणु के साथ जीवराशि से अनन्तानन्त गुणे 'विनसोपचयरूप परमाणु भी संबद्ध हैं, जो कर्मरूप या नोकर्मरूप तो नहीं है, किन्तु कर्मरूप या नोकर्मरूप होने के लिए उम्मीदवार हैं, उन्हें ही "विनसोपचय' कहते हैं। कर्मबन्ध की प्रक्रिया
(पुद्गल कर्म परमाणुओं का जीव के आत्म प्रदेशों के साथ एकक्षेत्रावगाही संबन्ध स्थापित कर लेना 'कर्मबन्ध' कहा जाता है। आ. श्री उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में(8/2) कहा है कषाय सहित होने से/ रागद्वेषरूप भावनात्मक परिणमन करने के कारण जीव कार्मण-वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करता है, इसी का नाम बन्ध है- सकषायत्त्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते सः बन्ध'- 8/2 त.सूत्र। इस बन्ध का मूल कारण जीव की मनसा-वाचा-कर्मणा होने वाली विकृत परिणति है। इसी के फलस्वरूप पुद्गल द्रव्य का जीवद्रव्य के साथ संयोग ही बंध कहलाता है। पंचाध्यायी में भी कहा है कि आत्मा में एक वैभाविक शक्ति है, जो पुद्गलपुंज के निमित्त को पाकर आत्मा में विकृति उत्पन्न करती है।
अनेक जड़ परमाणुओं या वर्गणाओं का परस्पर में अथवा जीव के आत्मप्रदशों के साथ विशेष प्रकार के घनिष्ठ संश्लिष्ट संबन्ध होने को 'बन्ध' कहते हैं। इसमें जड़ और चेतन दोनों ही पदार्थ अपने शुद्ध स्वभाव से च्युत होकर किन्ही विचित्र विजातीय भाव-विकारों को धारण कर लेते हैं। जीवों की योग तथा उपयोगात्मक क्रिया अथवा द्रव्यकर्म के रूप में बँध जाती हैं। जैविक रासायनिक प्रक्रिया से ये पुद्गल-परमाणु जीव के साथ बँधते हैं। तब जीव और कर्म अपने स्वरूप में नहीं रहते। यह बन्ध एकक्षेत्रावगाही, एकाकार और अखण्ड होता है। जैसे
ऑक्सीजन और हाईड्रोजन गैसें वायुरूप हैं और अग्नि को भड़काने की शक्ति रखती हैं; परन्तु दोनों मिल जाने पर जल बन जाती हैं जिसमें आग को भड़काने के बजाय उसे बुझाने की शक्ति आ जाती है- ऐसा बन्ध ही संश्लेष बन्ध कहलाता है। समस्त रासायनिक प्रयोगों का आधार भी यही बन्ध होता है। जैसे- सोना और ताँबा तथा पीतल
और कांसा मिलकर एक विजातीय पिंड बन जाते हैं। दोनों ही धातुएँ अपने शुद्ध स्वरूप में नहीं रहतीं। इस संश्लिष्ट बन्ध का यही वैशिष्टय है कि द्रव्य के स्वचतुष्टय ही बदलकर विजातीय रूप धारण कर लेते हैं। वे विकारी हो जाते हैं। फलतः बन्ध को प्राप्त सभी जड़ परमाणुओं का तथा जीव का परिणमन एक दूसरे की अपेक्षा रखकर होता है। उसका यही तो विकार है कि अपने शुद्ध स्वतंत्ररूप को छोड़कर अन्य के अधीन हो जाना और अपने कार्य में अन्य की सहायता की अपेक्षा रखना। विकारी भाव से द्रव्य अपने शुद्ध स्वभाव से व्युत होकर विजातीय प्रकार का हो जाता है। जैसे- दूध की मिठास दही की खटास के रूप में बदल जाती है।
-यहाँ यह आशंका होना स्वाभाविक है कि जीव जानने-देखने वाला है और इसमें संकोच-विस्तार की भी शक्ति है तथा यह अमूर्तिक भी है। जबकि कर्म जड़ है,