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अनेकान्त 64/4 अक्टूबर-दिसम्बर 2011
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कर्मसिद्धान्त के कतिपय तथ्यों का विवेचन - विश्लेषण
- प्राचार्य अभयकुमार जैन (से.नि. )
जीवतत्त्व को प्रभावित करने वाली किसी एक सत्ता को सभी आस्तिक दर्शन स्वीकारते हैं; क्योंकि इसे स्वीकारे बिना जीवों में दिखने वाली विषमता, विविधता तथा विभिन्न कालों में घटित होने वाली विभिन्न अवस्थाओं के बीच सामन्जस्य हो पाना किसी भी प्रकार संभव नहीं है। सभी जीव जब स्वभावत: समान है, तो फिर उनमें परस्पर वैमनस्य क्यों है? कोई धनी है तो कोई कोई निर्धन है, कोई काला है तो कोई गोरा है, कोई सुन्दर है तो कोई कुरूप है, कोई ज्ञानी है तो कोई अज्ञानी है, कोई मनुष्य है तो कोई पशु है इत्यादि। इसी तरह यदि यह जीव अमूर्त है तो देह के कारागृह में क्यों कैद है? इन सारे प्रश्नों का समाधान किसी जीव प्रभावक सत्ता को स्वीकारे/ माने बिना संभव नहीं है। उस सत्ता को वेदान्त दर्शन में 'माया' सांख्यदर्शन में प्रकृति', वैशेषिक दर्शन में " अदृष्ट" और जैनदर्शन में "कर्म" कहा गया है।
वस्तुतः यह सारा संसार कर्मों की ही विचित्र लीला क्रीड़ा है; क्योंकि संसार की समस्त क्रियाओं का आधार ये कर्म ही हैं। जैनागमों में कर्म और कर्मसिद्धांत का मौलिक एवं वैज्ञानिक दृष्टि से बड़ा सूक्ष्म तथा विस्तृत विवेचन है। इसकी विस्तृत सांगोपांग विवेचना से जैनदर्शन की वैज्ञानिकता, श्रेष्ठता सिद्ध और पुष्ट होने के साथ ही साथ प्रत्येक जीव की स्वतंत्र सत्ता तथा कर्मठता भी प्रमाणित होती है। यह सिद्धान्त वैज्ञानिक तात्त्विक तथा तार्किक दृष्टियों से व्यक्ति के आचरण और अध्यात्म की और उसमें विद्यमान उसके व्यवहार की कार्य-कारण- लक्ष्यी मीमांसा करता है। जीव के साथ बँधने वाले विशेष जाति के पुद्गलस्कन्धों की बड़ी सूक्ष्म विवेचना करता है अतः इसका परिज्ञान और पारायण एक ओर हमें कर्मों की शक्ति का बोध कराता है तो दूसरी ओर इस अनादिकालीन कर्मचक्र को तोड़ने-भेदने का उचित उपाय भी बतलाता है । इस दृष्टि से जैनाभिमत यह कर्मवाद किसी को भी भाग्यवादी बनाकर निराश और अकर्मण्य नहीं करता, अपितु आत्माहितकारी श्रेष्ठ पुरुषार्थ करने की पावन प्रेरणा ही देता है। यह व्यक्ति को विद्यमान विपदाओंबाधाओं और कठिनाईयों को समताभावों के साथ सहने की अपूर्व शक्ति देकर भावी जीवन को तथा भविष्य की पर्याय को सुधारने का शुभ-संदेश भी देता है।
कर्म स्वरूप मीमांसा
'कर्म' शब्द के अनेक अर्थ हैं- (1) कर्मकारक (2) क्रिया तथा (3) जीव के साथ बंधने वाले पुद्गल स्कन्ध / कर्मरूप परिणत इन पुद्गल - स्कन्धों का विशेष रूप से प्ररूपण केवल जैनदर्शन ही करता है। वास्तव में 'कर्म' का मौलिक अर्थ तो क्रिया ही है। मन-वचन-काय के द्वारा यह जीव कुछ न कुछ करता है, वह सब उसकी क्रिया या