Book Title: Anekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 284
________________ अनेकान्त 64/3, जुलाई-सितम्बर 2011 7. व्याख्यानमाला के संचालक- डॉ. जयकुमार जैन अध्यक्ष- अ. भा. विद्वत्परिषद् का स्वागत-महामंत्री जी द्वारा। स्वागत की इस श्रृंखला के पश्चात् संस्थान के महामंत्री ने अपने स्वागत भाषण में आगत सभी मनीषियों का वीर सेवा मंदिर समिति की ओर से स्वागत/ अभिनंदन करते हुए कहा कि माननीय अतिथि विद्वानों के द्वारा हम ज्ञान की पूंजी लेकर यहाँ से जायेंगे। भले ही प्रबुद्ध श्रोता विद्वानों की संख्या सीमित है, परन्तु यह सत्य है कि बाजार में रत्नों के ढेर नहीं होते, वे संजोकर डिबिया में ही रखे जाते हैं। उन्होंने कहा कि ज्ञान के प्रचार/ प्रसार में विद्वानों की अहम् भूमिका रहती है वीर सेवा मंदिर के अध्यक्ष श्री सुभाष जी ने संस्थान का परिचय देते हुए इसकी स्थापना का इतिहास एवं उद्देश्य बताया। आपने कहा कि वर्तमान में संस्थान के पुस्तकालय में 7 हजार से अधिक ग्रंथ एवं 167 हस्तलिखित ग्रंथ मौजूद हैं साथ ही 50 से अधिक ग्रंथों का यह अभी तक प्रकाशन कर चुका है। आपने शोध संस्थान के संस्थापक विद्या की महार्णव पं. जुगलकिशोर जी मुख्तार साहब का स्मरण करते हुए अन्यान्य विभूतियों के नामों का उल्लेख किया जिन्होंने इस संस्थान को समय-समय पर अपनी सेवाएं देकर इसके उत्कर्ष एवं उत्थान में महती भूमिका निभायी। प्रथम प्रमुख वक्ता के रूप में प्रो. कमलेश कुमार ने वीर शासन जयंती क्या है और यह श्रावण कृष्ण एकम् को क्यों मनाई जाती है, का ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर चर्चा करते हुए कहा कि आज के दिन भगवान् महावीर स्वामी की दिव्यध्वनि, केवलज्ञान (पूर्णज्ञान) होने के 66 दिन बाद खिरी थी, क्योंकि उन लोकोत्तर अर्हन्त परमेष्ठी भगवान् महावीर को भी एक योग्य शिष्य की तलाश थी जिनके बिना दिव्यध्वनि के खिरने का योग नहीं हो पा रहा था। आपने प्राकृत भाषा के विकास के लिए सुझाव दिया कि प्राकृत गाथानुक्रमणिका का संवर्द्धित/ संशोधित संस्करण पुनः प्रकाशन होना चाहिए। आपने अनुपलब्ध आगम ग्रंथों के प्रकाशन पर जोर दिया। इस समारोह में समणी, सरस्वती पुत्र एवं श्रीमन्त यह त्रिकुटी विराजमान है, जिनपर श्रुत के संरक्षण का उत्तरदायित्व है। द्वितीय वक्ता के रूप में प्रो. सुदीप जी ने प्राकृत भाषा के विकास (षट्खण्डागम के विशिष्ट परिप्रेक्ष्य में) कहा कि प्राकृत भाषा कालगत भाषा है। कुछ कुतर्कवादियों ने जब यह कहा कि यह बाल, स्त्री और मूों की भाषा है तो भगवान् महावीर ने कहा- सही है इन्हीं को सुनाने और समझाने के लिए सहज-भाषा है। गुरुकुलों में पांच प्रकार के आचार्य हुआ करते थे उनमें उच्चारणाचार्य, व्याख्यानमाला आदि होते थे जो सही पद का सही उच्चारण एवं अर्थ बताते थे। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि प्राकृत ग्रंथों की संस्कृत छाया करने से प्राकृत भाषा का भला नहीं हो सकता। होना यह चाहिए कि संस्कृत की प्राकृत छाया हो। आज समाज में एक भी प्राकृत पाठशाला नहीं। जबकि हमारे जैनागम की मूल भाषा- प्राकृत भाषा है। तृतीय प्रमुख वक्ता के रूप में भाषा विज्ञान के विद्वान् प्रो. वृषभप्रसाद जी ने श्रमण और वैदिक परम्परा का उल्लेख करते हुए कहा कि दोनों परम्पराओं ने अपनी- अपनी भाषा

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