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अनेकान्त 64/3, जुलाई-सितम्बर 2011 के विज्ञान का विकसित किया है और एक परंपरा ने दूसरों की परंपरा को (खासकर भाषा के क्षेत्र की) देखना प्रायः बन्द कर दिया है। संस्कृत को अपेक्षाकृत ज्यादा महत्त्व दिया गया और पाली/ प्राकृत तथा अपभ्रंश भाषा को अछूत की तरह व्यवहृत 'ओम्' कार बीज पद रूप सर्वभाषामयी थी अर्थात् सर्वमागधी भाषा थी। प्राकृत भाषा केवल जैनों की बपौती नहीं है। हाँ जैनों की पहचान- भाषा हो सकती है। प्राकृत भाषा- अखण्ड भारत का प्रतिनिधित्व करती है। वस्तुतः महावीर ने वह सब कहा जो मनुय के काम का था मनुष्य के कल्याण का था।
उपसाला यूनिवर्सिटी स्वीडन के प्रो. हैन्ज बैसलर ने भी हिन्दी में संक्षिप्त भाषण दिया और कहा मनुष्य चाहे तो हर भाषा को सीख सकता है। आप स्वीडन में संस्कृत एवं हिन्दी भाषा के प्रोफेसर हैं। उन्होंने कहा कि भाषा विशेष से हमारी सोच में परिवर्तन होता है। कार्यक्रम के संचालक विद्वान् डॉ. जयकुमार जैन (संपादक 'अनेकान्त' वीर सेवा मंदिर त्रैमासिकी शोध पत्रिका एवं अध्यक्ष- अ. भा. विद्वत्परिषद्) ने टिप्पणी करते हुए कहा कि प्रो. वैसलर साहब की हिन्दी सुनकर हम सभी को बड़ी प्रसन्नता और प्रेरणा मिली है। इतनी अच्छी हिन्दी बोलकर आपने संसद का मन मोह लिया। प्रो. वैसलर ने कहा कि मुझे अभी जैनदर्शन का अध्ययन ज्यादा नहीं है परन्तु दो वर्ष के भीतर प्राकृत का प्रवेश पाठ्यक्रम विश्वविद्यालय में स्थापित करने का संकल्प करता हूँ। संस्थान के महामंत्री जी ने आपको एवं डॉ. अफरीदी को बैरिस्टर चम्पतराय जी की पुस्तक "Key of Knowledge एवं Jain Bibiliography (छोटेलाल जैन) की पुस्तक भेंट स्वरूप प्रदान की।
मुख्य अतिथि के रूप में जैन कॉलेज बड़ौत में संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. श्रेयांश कुमार जैन ने 'वीर शासन जयन्ती' की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर चर्चा करते हुए कहा कि आज से भगवान् महावीर का तीर्थकाल प्रवर्तित हुआ, इसके 250 वर्ष तक पूर्व भगवान् पार्श्वनाथ का शासनकाल रहा। उन्होंने कहा कि अर्हन्त भगवान् की भाषा 'बीजपद' रूप होती है जिसमें अनन्त अर्थ गर्भित होते हैं। गणधर- उन बीज पदों की व्याख्या करके ग्रंथों का प्रणयन करते हैं। मुख्य अतिथि ने कहा कि हमें आगम शास्त्र के अनुसार शास्त्रों को टटोलकर आधी अधूरी बात उसमें से निकालकर प्रस्तुत कर रहे हैं। ___ शोध-उपसमिति के सदस्य श्री रूपचंद कटारिया ने भी संक्षेप में डॉ. श्रेयांश जी के व्याख्यान की अनुमोदना की। व्याख्यानमाला का समापन करते हुए सम्माननीया अध्यक्षा प्रो. समणी चारित्र प्रज्ञा जी ने अपना मार्मिक व्याख्यान देते हुए कहा कि हमें अपने मनभेद और मतभेद दोनों को समन्वय बिन्दुओं पर स्वीकृति देते हुए दूर करना चाहिए। उन्होंने कहा कि जब तक सम्यक्दर्शन और सम्यग्ज्ञान दोनों साथ-साथ नहीं चलते, तब तक सम्यक्चारित्र पैदा नहीं होता। आज विश्व को पूरी तरह आश्वस्त करना है कि जैनधर्म एक स्वतंत्र धर्म है न तो यह हिन्दू धर्म की शाखा है और न ही बौद्धधर्म का अपर रूप है। उन्होंने आगे बोलते हुए कहा कि जहाँ नय, निक्षेप है वहाँ अनेकान्त है और जहाँ अनेकान्त है वहाँ फिर कोई आग्रह नहीं है। पुस्तकालयों के ग्रंथ- केवल प्रदर्शन की वस्तु न रह जावें बल्कि वे ज्ञान प्रकाश का माध्यम बनें। आज का बालक तर्कशील हो गया है। माता-पिता यदि