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अनेकान्त 64/3, जुलाई-सितम्बर 2011 भी आंशिक ब्रह्मचारी कहा गया है अन्य दर्शनों की अपेक्षा जैनदर्शन में ब्रह्मचर्य का जितना सूक्ष्म विवेचन प्राप्त होता है उतना सूक्ष्म विवेचन अन्यत्र अप्राप्य है। अपरिग्रह व्रत :
धन-धान्यादि बाह्य पदार्थों के प्रति ममत्व, मूर्छा या आसक्ति को परिग्रह कहते हैं। मनुष्य के पास जितनी अधिक संपत्ति की कामना होती है उसके पास उतनी ही अधिक मूर्छा आसक्ति या ममत्व होती है। अपनी इसी आसक्ति के कारण आवश्यकता न होने पर भी वह अधिक से अधिक धन प्राप्त करने की कोशिश करता है। यद्यपि मनुष्य की आवश्यकताएँ बहुत सीमित हैं। उन आवश्यकताओं की पूर्ति थोड़े से प्रयत्न से की जा सकती हैं, किन्तु आकांक्षाओं के अनन्त होने के कारण मनुष्य में और अधिक जोड़ने की भावना बनी रहती है इसे परिग्रह की संज्ञा दी है। संसार में परिग्रह को पाप की संज्ञा देने वाला जैनधर्म ही एक मात्र धर्म है। अन्य धर्म परिग्रह को पाप न मानकर आजीविका का साधन मानते हैं और उसे प्राप्त करने के लिए पूरा जीवन समाप्त कर देते हैं। फिर भी कुछ अंशों में वैदिक धर्म में साधु जीवन को त्यागी जीवन कहा है जिससे परिग्रह का संदेश तो दिया है परन्तु पाप की संज्ञा नहीं दी। जलगालन:
जैनधर्म में पानी छानने की एक विशेष विधि है। जिसमें एक मोटा कपड़ा लिया जाता है जिससे सूर्य की रोशनी आरपार नहीं जा सके। उसका नाप 36 अंगुल लम्बा और 24 अंगुल चौड़ा वस्त्र को दोहरा करके पानी छानने का निर्देश है। ऐसे कपड़े से पानी छानने से अनछने पानी में जो त्रस जीव होते हैं वे छन जाते हैं और पानी 48 मिनिट तक के लिए त्रस जीवों की उत्पत्ति स्थान से रहित हो जाता है। परन्तु छने हुए पानी में स्थावर सूक्ष्म जीव पाये जाते हैं जो कपड़े से नहीं छन पाते क्योंकि वे बाधा रहित होते हैं। पानी को इन सूक्ष्म जीवों से रहित करने के लिए प्रासुक किया जाता है जिससे जल सूक्ष्म एवं त्रस जीव दोनों से रहित हो जाता है और इसमें शीतल स्वभाव अपने तक दोनों प्रकार के जीवों की उत्पत्ति स्थान नहीं बनते। इस प्रकार के जल को ग्रहण करने का साधु को निर्देश दिया है। साधु त्रस, स्थावर दोनों प्रकार के जीवों की हिंसा के त्यागी होते हैं। इसलिए वह गर्म पानी को ही ग्रहण करते हैं तथा डॉक्टर और वैज्ञानिक भी लोगों को स्वस्थता के लिए गर्म प्रासुक जल पीने की सलाह देते हैं। इससे जीवों की हिंसा से भी बचा जा सकता है तथा स्वास्थ्य भी अच्छा रखा जा सकता है। जगदीश चंद बसु ने अनछने पानी की एक द में 36450 त्रस जीव बताये हैं। जैन ग्रन्थों के अनुसार उक्त जीवों की संख्या काफी अधिक है। ऐसा कहा जाता है कि एक जल बिन्दु में इतने जीव पाये जाते हैं कि वे यदि कबूतर की तरह उड़ें तो पूरे जम्बूद्वीप को व्याप्त कर लें। उक्त जीव के बचाव के लिए पानी को वस्त्र से छानकर पीना चाहिए। मनुस्मृति में भी दृष्टिपूतं न्यसेत् पादं वस्त्रपूतं पिबेत् जलम् कहकर जल छानकर पीने का परामर्श दिया गया है।'
जैनदर्शन में पानी छानने का मूल उद्देश्य जीवों की रक्षा करना तथा जीवहिंसा से बचकर स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करना है। इसी कारण प्राचीनकाल में और वर्तमान काल में