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अनेकान्त 64/3, जुलाई-सितम्बर 2011
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धार्मिक स्थलों में देखते हैं तो उन्हें धर्म की अपेक्षा आपसी मतभेद दिखाई देते हैं। जिस कारण वह धार्मिक कार्यक्रमों से हटता जाता है और एक समय ऐसा आता है कि उसकी धर्म से पूर्ण रूप से श्रद्धा समाप्त हो जाती है। पाप कार्यों में स्वतंत्रता
जब युवापीढ़ी धार्मिक स्थलों में पुण्य की क्रियाओं की अपेक्षा विकथाओं की क्रिया को करते देखती है तो अज्ञान होने के कारण वे उस क्रिया को ही धर्म मान लेते हैं तथा दया आदि क्रियाओं से रहित क्रिया काण्डों को ही धर्म मानकर धर्म के नाम पर स्वतंत्र रूप से पाप करते हैं तथा इन क्रियाओं के अतिरिक्त धार्मिक स्थलों में धार्मिक संस्कार नहीं मिलने के कारण वे अन्य स्थलों में पाप की क्रियाओं को अधिक करते हैं। अतः धार्मिक मतभेद को मिटाकर एक दूसरे के विचारों की अपेक्षा से समझकर धर्म निरपेक्ष भाव से वैमनस्यता को समाप्त करना चाहिए। धर्म निरपेक्षता के अभाव के कारण
प्राचीय युग में धर्म निरपेक्षता पूर्ण व्यवहार किया जाता था परन्तु वर्तमान में धर्म निरपेक्षता के अभाव के कारण बहुत हैं। जिनके कारण व्यक्तियों का निरपेक्ष राज्य से विश्वास समाप्त हो गया है उनमें से कुछ कारण निम्न हैंमान कषाय
पूर्व काल से व्यक्ति जिस भेदभाव रूपी गलत मान्यता का अनुसरण कर रहा है उस मान्यता में अथवा परंपरा में सुधार लाने का विचार बनाता भी है तो उसकी मान कषाय उस काम में विघ्न रूप से उपस्थित हो जाती है। वह मान कषाय की पूर्ति के लिए भेदभाव रूप नीति को अपनाने में बाध्य हो जाता है उसे लगता है कि यदि वह धर्म निरपेक्षता को स्वीकार करके सभी से समानता का व्यवहार करने लगेगा तो उसके परिवार की परंपरा का क्या होगा उसे लोग क्या कहेंगे? इस कारण वह मान कषाय को बचाने के लिए धर्म निरपेक्षता से दूर रहता है। हठधर्मिता
यह मान कषाय का ही दूसरा रूप है। इसमें व्यक्ति एक बार किसी मान्यता को ग्रहण कर लेता है तो अपने हठीले स्वभाव के कारण वह उसे छोड़ नहीं पाता। जिससे उसका पतन तो होता है और उसके संगठन में भी मिथ्या मान्यता का प्रचार होता है। पराधीनता
आज वर्तमान में पराधीन व्यक्ति धर्म निरपेक्षता के लिए स्वतंत्र नहीं है। वह जिसके अधीन काम करता है उसकी मान्यता का अनुसरण करना पड़ता है वरना उसे उसके कार्य से बहिष्कृत किया जा सकता है। स्वामी अपने नौकर को अपने धर्म को स्वीकार कराने के लिए प्रयत्न करता है। पत्नि पति के धर्म के अनुसार गमन करती है। स्वार्थपरायणता
व्यक्ति का अपना कोई धर्म निश्चित नहीं रह गया है वह जहाँ अपना स्वार्थ देखता