Book Title: Anekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 272
________________ अनेकान्त 64/3, जुलाई-सितम्बर 2011 है। जो मानव स्वयं के दोषों को निहारता है, उसे दूसरों के दोष देखने का अवकाश नहीं होता। निंदा करने वाला और सुनने वाला- ये दोनों ही समान रूप से पापी हैं। पेट और उपस्थ (जननेन्द्रिय) को हराम की जगह से बचाओ क्योंकि इन्हीं के कारण से हराम के कार्य होते हैं। तुम्हारा कर्त्तव्य है कि जिसने तुम्हारे साथ असद्व्यवहार किया हो उनके साथ सद्व्यवहार करो तथा यतीमों (अनाथों) की भलाई करो। इस तह जैनदर्शन के अंशतः संयम आचरण शुद्धता आदि सिद्धान्तों का दर्शन इस्लाम धर्म में भी प्रतिबिम्बित होता है। 6. जैनदर्शन के सिद्धान्तों का दिग्दर्शन सिख धर्म में भी प्राप्त होता है। सिख धर्म में आचरण पर विशेष जोर दिया गया है और कहा गया है कि सत्य से भी ऊँचा आचार है तथा काम, क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार आदि दुर्गुणों पर नियंत्रण करने से चारित्र उन्नत होता है। सिख धर्म में सबके आगे झुकना, क्षमा करना और मीठा बोलना ये तीन वचन मुक्ति के मार्ग बताये गये हैं।' सांस्कृतिक और सामाजिक धर्म निरपेक्षता : ___ संस्कृति किसी देश की धरोहर होती है। यदि संस्कृति का नाश हो जाता है तो वह देश भी कुछ दिनों तक जीवित रहता है। प्राचीन भारत में राजतंत्र का प्रचलन था। जिसमें राजा के अधीन होकर धर्म तथा कर्म किया जाता था। यदि राजा पक्षपातपूर्ण व्यवहार करने वाला होता था तो प्रजा अपना धर्म तथा कर्म निर्विघ्नता से नहीं कर सकती थी। आगम युग में देखा जाए तो सभी राजा अपनी प्रजा की भलाई के लिए प्रतिक्षण प्रयत्न करते रहते थे। वे सदैव उनकी रक्षा करते थे। परन्तु कोई भी राजा प्रजा की संस्कृति के साथ अन्याय पूर्ण व्यवहार नहीं करता था। राजा किसी भी संस्कृति का पालन करने वाला हो परन्तु वह प्रजा की संस्कृति पर आघात नहीं पहुँचाता था और यदि वह प्रजा की संस्कृति पर आघात करता था तो प्रजा उसे राज्यपद से च्युत कर देती थी। जैसे उपश्रेणिक ने अपने पुत्र चिलाती को राज्य प्रदान किया था परन्तु वह प्रजा के साथ अन्याय तथा प्रजा की संस्कृति के साथ आघात पूर्ण व्यवहार करने लगा था जिससे उसे प्रजा ने राजसिंहासन से च्युत करके श्रेणिक को राजा नियुक्त किया था। इस संस्कृति के अंतर्गत मानव का रहन-सहन, आहार-विहार, वस्त्रों का पहनाव आदि करते थे। पूर्व काल में किसी भी देश का या रियासत का रहन सहन पृथक् होता था जिससे उसके देश के काल का पता चलता था। जैनधर्म में वर्णन प्राप्त होता है कि राजा प्रजा के रहन-सहन पर हस्तक्षेप नहीं करता था तथा दूसरे राज्य से आये हुए मेहमान को उस राज्य की वेशभूषा, रहन-सहन आदि को अपनाने के लिए बाध्य नहीं होना पड़ता था। हरिवंशपुराणकार ने वसुदेव के देश-विदेश भ्रमण के समय वसुदेव के रहन-सहन के परिवर्तन का संकेत नहीं दिया तथा वसुदेव देश-विदेश में परिभ्रमण करते रहे परन्तु किसी राजा ने उनके रहन-सहन को बदलने के लिए बाध्य नहीं किया। इससे स्पष्ट होता है कि व्यक्ति कहीं भी जाये उसे अपनी संस्कृति को परिवर्तन करने के लिए स्वतंत्रता थी चाहे वह परिवर्तन करे अथवा न करे। रहन-सहन के समान व्यक्ति आहार-विहार के लिए भी स्वतंत्र था। उसको परिभ्रमण

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