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अनेकान्त 64/3, जुलाई-सितम्बर 2011
में अति संक्षेप में वज्रदन्त चक्रवर्ती का कथानक है। 'वाणी संख्या' में जैनधर्म सम्मत वर्णमाला के चौसठ वर्णों के साथ अंग साहित्य और उपांग साहित्य के पदों की संख्या का विस्तार से विवेचन है।
ये पद्य कहीं दोहों अथवा सोरठों के रूप में दो-दो पंक्तियों के रूप में हैं, कहीं चौपाई आदि के रूप में चार-चार पंक्तियों में हैं, कहीं कुण्डलियों आदि के रूप में छह-छह पंक्तियों में हैं और कहीं छन्द मलिक माला आदि के रूप में आठ-आठ पंक्तियों में लिखे गये हैं। हिन्दी के इन प्रचलित विविध छन्दों में तो महाकवि पण्डित द्यानतराय ने लिखा ही है, साथ ही मन्दाक्रांता, शार्दूलविक्रीडित, भुजंगप्रयात, मालिनी और वसन्ततिलका जैसे अतिप्रसिद्ध संस्कृत छंदों में भी अनेक पदों की रचना की है। हिन्दी के छन्दों में दोहा, सोरठा, चौपाई, छप्पय, सवैया इकतीसा (मनहर), सवैया (सुन्दरी), सवैया (मदिरा), करवा छन्द (सर्वलघु), कवित्त, अडिल्ल, छन्द चाल, ढाल, गीता, अनंगशेखर छन्द, अशोकपुष्प मञ्जरी, जोगी रासा, मोती दाम, दोहा की ढाल, दोहा की दूसरी ढाल, रेखता, चौबीसा छन्द (आठ रगण) और सुन्दरी आदि प्रसिद्ध एवं अल्प प्रसिद्ध छंदों का प्रयोग किया है। चरचा शतक:
इस ग्रंथ में कुल एक सौ तीन पद्य हैं, जो प्रायः पूर्वोक्त हिन्दी छंदों में लिखे गये हैं। इसके प्रारंभ में पञ्च परमेष्ठी की स्तुति, नेमिनाथ की स्तुति, अकृत्रिम चैत्यालयों की प्रतिमाओं की स्तुति और सिद्ध स्तुति की गई है। पुनः तीन लोक का विवेचन, लोक और अलोक का विभाजन और लोक के स्वरूप का विस्तार से बहुत अच्छा विवेचन किया गया है। महाकवि द्यानतराय के इस विवेचन से लोक के घनफल आदि की भी जानकारी मिलती है तथा छहों संहनन वाले जीव मरकर कहाँ-कहाँ उत्पन्न होते हैं? चौबीस तीर्थकरों के बीच का अंतराल, कर्मों की एक सौ अड़तालीस प्रकृतियाँ किस-किस गुणस्थान में क्षय होती हैं? तीन लोक के अकृत्रिम चैत्यालयों की संख्या, तीर्थंकरों के शरीरों का वर्ण, अधोलोक के चैत्यालयों की संख्या, इन्द्र की सेना, आठ कर्मों के आठ दृष्टान्त, जम्बूद्वीप का वर्णन, पञ्च परावर्तन का स्वरूप, नंदीश्वर द्वीप एवं मेरु पर्वत का वर्णन, सात नरकों एवं सोलह स्वर्गों में आवागमन, कषायों के दृष्टांत और उनके फल, चौरासी लाख योनियाँ, कर्म प्रकृतियों का क्षय-क्षयोपशम तथा जिनवाणी के सात अंगों आदि का विस्तार से विवेचन है। ये विषय तो मुख्य-मुख्य हैं। इनके अवान्तर भेदों का भी विवेचन है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि इस 'चरचा शतक' में तत्त्वार्थसूत्र के तृतीय एवं चतुर्थ अध्याय के साथ ही गोम्मटसार (जीवकाण्ड एवं कर्मकाण्ड) तथा तिलोयपण्णत्ती आदि के विषय का एकदेश विवेचन है। यह ग्रंथ स्वाध्याय करने वाले श्रावकों के लिए अत्यन्त उपादेय है।
'चरचा शतक' की विषय वस्तु अस्त-व्यस्त है। इसके विषयों में क्रमबद्धता नहीं है। इसका कारण संभवतः यह है कि अलग-अलग समयों में श्रावकों के साथ धर्मचर्चा होती होगी और उसी को पण्डित द्यानतराय कविताबद्ध करते गये होंगे। बाद में सभी चर्चाओं को