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अनेकान्त 64/3, जुलाई-सितम्बर 2011
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धर्म कहा है तथा सर्वार्थसिद्धिकार आचार्य पूज्यपादस्वामी ने इष्टस्थाने धत्ते इति धर्मः कहकर आत्मा को इष्ट स्थान में धरने वाले को धर्म कहा है।"
निरपेक्षता का अर्थ :
धर्म निरपेक्षता में दो शब्दों का समावेश होता है। जिसमें धर्म का अर्थ धारण करना है तथा निरपेक्षता का अर्थ एकान्त अपेक्षा से रहित होना है अर्थात् जिसमें एकान्त अपेक्षा से रहित होकर अनेकान्त को धारण किया जाता है, वह धर्म निरपेक्षता है।
सैद्धान्तिक धर्म निरपेक्षता :
जैनदर्शन में जिन सिद्धान्तों का प्रतिपादन अरिहन्त भगवन्तों ने किया है वह सभी जीव मात्र के लिए है। चाहे वे एकन्द्रिय हों अथवा पंचेन्द्रिय हों, चाहे निम्न वर्ग के हों अथवा उच्चवर्ग के हो सभी को इन सिद्धान्तों को मानने के लिए स्वतंत्रता प्राप्त है। ये सिद्धान्त किसी के व्यक्तिगत न होकर सार्वजनिक सिद्धान्त हैं, तभी तो जैनदर्शन के सिद्धान्तों की अन्य भारतीय दर्शनों के सिद्धान्तों के साथ समानता देखी जाती है। इसे ही धर्म निरपेक्षता के अंतर्गत लिया गया है। जैनदर्शन में सिद्धान्तों का विवेचन जितना सूक्ष्म दृष्टि से किया गया है उतना अन्य भारतीय दर्शनों में सूक्ष्म रूप प्राप्त नहीं होता अपितु भारतीय दर्शनों में इन सिद्धान्तों का बहिरंग रूप अथवा स्थूल रूप का विवेचन प्राप्त होता है।
अहिंसा :
अहिंसा जैनाचार का प्राण तत्त्व है। इसे ही परमब्रह्म और परमधर्म कहा गया है। किसी जीव को मात्र मारना ही हिंसा नहीं है। हिंसा और अहिंसा का संबन्ध तो हमारे भावों, परिणामों (विचारों) से है। इसे हमें व्यापक अर्थों में समझना चाहिए। यूँ तो संसार में सर्वत्र जीव भरे हैं तथा वे प्रतिसमय अपने-अपने निमित्तों से मरते रहते हैं। इतने मात्र से कोई हिंसक नहीं हो सकता। जैनधर्म के अनुसार हिंसा रूप परिणाम होने पर ही किसी को हिंसक कहा जा सकता है। हिंसा की परिभाषा बताते हुए आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में कहा है कि प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा' अर्थात् जब कोई प्रमादी बनकर, जान-बूझकर असावधानी अथवा लापरवाही से किसी भी जीव का घात करता है अथवा कष्ट पहुँचाता है तभी उसे हिंसक कहा जा सकता है। आशय यह है कि हिंसा तीन परिस्थितियों में होती है। पहली जान बूझकर - अभिप्राय पूर्वक, दूसरी असावधानी या लापरवाही जन्य और तीसरी हिंसा न चाहते हुए भी पूर्ण सावधानी बरतने पर भी अचानक या अनायास किसी जीव का वध हो जाने पर जब कोई प्रेरित व्यक्ति कषाय के वशीभूत होकर किसी पर वार करता है तो यह हिंसा कषाय प्रेरित हिंसा असावधानीकृत हिंसा कही जाती है, लेकिन पर को कष्ट पहुँचाने की भावना से शून्य पूरी तरह से सावधान व्याक्ति द्वारा यदि अनायास किसी प्राणी का घात हो जाता है तो उक्त परिस्थिति में उसे हिंसक नहीं कहा जा सकता। इस बात को स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं किउच्चलियम्हि पाए इरियासमिदस्स णिग्गमत्याए । आबाधेन्ज कुलिंग मरिज्ज तं जोगमासेन्ज
हि तस्स तणिमित्तो बन्धो सहमोवि देसिदो समये।